सोचिए, एक ऐसी दुनिया जहाँ हर देश ने एक-दूसरे से हाथ मिला रखा था—व्यापार, तकनीक, संसाधन और टैलेंट सब कुछ साझा होता था। लेकिन अब ऐसा लग रहा है जैसे यह पूरी व्यवस्था उलटी दिशा में चल पड़ी है। ग्लोबलाइजेशन की खुली खिड़कियाँ बंद होने लगी हैं, और इसके पीछे एक बड़ा चेहरा बार-बार उभरता है—डोनाल्ड ट्रंप। एक ऐसा राष्ट्रपति जिसने सिर्फ नीतियाँ नहीं बदलीं, बल्कि पूरी Global सोच को चुनौती दे दी।
और अब जब उन्होंने फिर से सत्ता में वापसी की है, तो सवाल बड़ा है—क्या ट्रंप ने वाकई Deglobalization की आग को हवा दी है? और अगर हाँ, तो इसका सबसे बड़ा नुकसान किसे होने वाला है? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
ग्लोबलाइजेशन—जहां देश एक-दूसरे से आर्थिक, तकनीकी और सांस्कृतिक रूप से जुड़े होते हैं। 1990 और 2000 के दशक में ये जुड़ाव इतनी तेजी से बढ़ा कि पूरी दुनिया एक “ग्लोबल विलेज” बन गई। भारत से टेक्नोलॉजी अमेरिका गई, चीन से मैन्युफैक्चरिंग यूरोप पहुंची, और यूरोप से फंडिंग अफ्रीका तक। लेकिन अब तस्वीर बदल रही है। Deglobalization, यानी Globalization का उलटा चलन, धीरे-धीरे हकीकत बनता दिख रहा है। यह सिर्फ आर्थिक प्रवाह नहीं, बल्कि विश्वास, सहयोग और Global एकजुटता का भी पतन है।
इस बदलाव की बुनियाद पड़ी 2016 में, जब डोनाल्ड ट्रंप पहली बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने। उन्होंने चुनावी मंच से ही ‘अमेरिका फर्स्ट’ का नारा दिया और विदेशी कंपनियों और देशों को चेतावनी दी कि अमेरिका अब सिर्फ अपने हितों को देखेगा। उन्होंने कहा कि चीन, भारत और कनाडा जैसे देश अमेरिका की ‘उदार’ नीतियों का फायदा उठा रहे हैं और अब वक्त आ गया है हिसाब बराबर करने का। ट्रंप के इस तेवर ने Global मंच पर हलचल मचा दी।
2016 में ही ब्रिटेन ने भी Globalization के खिलाफ एक बड़ा कदम उठाया। ब्रेक्जिट—यानी यूरोपीय यूनियन से बाहर निकलने का फैसला। ब्रिटेन की आधी जनता ने खुलकर कहा कि वे अब अपने व्यापारिक फैसले खुद लेना चाहते हैं। यह फैसला सिर्फ राजनीतिक नहीं था, यह एक वैचारिक क्रांति थी, जो ग्लोबल व्यवस्था के प्रति असंतोष को दर्शा रही थी। Global सहयोग के इस ताने-बाने में दरारें पड़नी शुरू हो चुकी थीं।
अब 2024 की वापसी के बाद ट्रंप और भी आक्रामक हो चुके हैं। उन्होंने खुलकर आर्थिक राष्ट्रवाद का बिगुल बजाया है। ‘अमेरिका फर्स्ट’ अब सिर्फ नारा नहीं, बल्कि पूरी नीति बन चुकी है। टैरिफ, यानि Import पर भारी टैक्स लगाकर ट्रंप ने दुनियाभर के देशों को झटका दे दिया है। चीन, भारत, यूरोपीय संघ—कोई भी इससे बच नहीं पाया। यह नीति न केवल Global व्यापार के लिए, बल्कि देशों की आपसी समझदारी और साझेदारी के लिए भी एक चेतावनी है।
ट्रंप का मानना है कि अमेरिकी उद्योगों को बचाने के लिए विदेशी उत्पादों पर भारी शुल्क लगाना जरूरी है। फरवरी 2025 में उन्होंने सभी देशों से Import पर 10% का बेसलाइन टैरिफ लागू किया और मार्च में इसे 20% तक बढ़ा दिया। अप्रैल 2025 में उन्होंने “रेसिप्रोकल टैरिफ” की घोषणा करते हुए भारत पर 26% और चीन पर 34% शुल्क लगा दिया। यह सिर्फ आर्थिक हमला नहीं, बल्कि राजनीतिक दबाव का तरीका भी था। इसके पीछे साफ इरादा था—अमेरिका को फिर से दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था बनाना।
इन टैरिफ का असर तुरंत दिखा। चीन से Import पर टैरिफ 54% तक पहुंच गया। जवाब में चीन ने भी अमेरिकी सामानों पर 34% टैरिफ लगा दिया। यही नहीं, कनाडा, मेक्सिको, ब्राजील, और यूरोपीय यूनियन ने भी अमेरिका पर टैरिफ लगा दिए। भारत को भी जवाबी रणनीति बनानी पड़ी और वह अमेरिका से टैरिफ कम करने पर बातचीत कर रहा है। इस टैरिफ वॉर ने न केवल व्यापारिक रिश्तों को प्रभावित किया, बल्कि देशों के कूटनीतिक समीकरणों को भी बदल डाला।
इन टैरिफ्स ने Global व्यापार की नींव हिला दी। अमेरिकी कंपनियों के लिए चीन से सामान मंगाना अब महंगा हो गया है। इससे अमेरिका में चीनी इलेक्ट्रॉनिक्स की कीमतें 15 से 20% तक बढ़ गईं। अमेरिका की जनता को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। आम आदमी की जेब पर असर पड़ रहा है, और महंगाई की मार चारों ओर महसूस की जा रही है। व्यापारिक अनिश्चितता से कंपनियाँ परेशान हैं और Investor डरे हुए हैं।
Deglobalization के इस दौर का असर सिर्फ व्यापार तक सीमित नहीं है। दुनिया की सप्लाई चेन बुरी तरह से प्रभावित हो रही है। कंपनियाँ अब सस्ते विकल्प की तलाश में चीन से बाहर निकल रही हैं। अमेरिका की कंपनियों ने 2024 में चीन से 30% कम Import किया। इसका मतलब है कि Global सप्लाई चेन का नक्शा ही बदल रहा है। इससे कई देशों की अर्थव्यवस्था को नुकसान हुआ है, जबकि कुछ देशों को नई संभावनाएं भी मिली हैं और जब सप्लाई चेन डगमगाती है, तो शेयर बाजार कांपते हैं। अप्रैल 2025 में टैरिफ की घोषणा के बाद दुनिया भर के शेयर बाजार घुटनों के बल आ गए।
ट्रंप की टैरिफ पॉलिसी के असर से ब्रिटेन भी अछूता नहीं रहा। ब्रिटिश प्रधानमंत्री कीर स्टॉर्मर ने हाल ही में इशारा दिया कि “ग्लोबलाइजेशन जैसा हमने दशकों तक देखा, अब खत्म हो गया है”। ब्रिटेन अब “फ्रेंडशोरिंग” को प्राथमिकता दे रहा है, यानी सिर्फ भरोसेमंद देशों के साथ व्यापार करेगा। यह बयान केवल एक विचार नहीं, बल्कि Global व्यापार की दिशा बदलने वाली रणनीति का संकेत है।
स्टॉर्मर की ये रणनीति केवल बयान नहीं, बल्कि Deglobalization को आधिकारिक मान्यता देने जैसा है। वे जल्द ही ब्रिटेन के उद्योगों के लिए संरक्षणवादी नीतियों की घोषणा करने वाले हैं, और अगर ऐसा होता है तो ये Global व्यापार के सिकुड़ने का एक और बड़ा संकेत होगा। यह कदम अन्य देशों को भी ऐसे ही रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित कर सकता है, जिससे ग्लोबल ट्रेड का पूरा ढांचा बदल सकता है।
ऐसे में सवाल उठता है कि भारत इस Global उथल-पुथल में कहां खड़ा है? ट्रंप की टैरिफ वॉर भारत के लिए अवसर और खतरे दोनों लेकर आई है। भारत का Export 2024 में 778 बिलियन डॉलर रहा, जिसमें अमेरिका, यूरोपीय संघ और चीन बड़े बाजार थे। लेकिन अब इन बाजारों में संरक्षणवाद की हवा बह रही है, जिससे भारत की विदेश व्यापार रणनीति पर बड़ा असर पड़ सकता है।
26% रेसिप्रोकल टैरिफ की वजह से भारत से अमेरिका को होने वाला टेक्सटाइल, ज्वैलरी और ऑटो पार्ट्स का Export 2 से 3 बिलियन डॉलर तक घट सकता है। चीन में भी अमेरिकी मांग घटने के कारण भारत से स्टील और केमिकल जैसी वस्तुओं की मांग में गिरावट आई है। इससे लाखों नौकरियाँ प्रभावित हो सकती हैं और छोटे कारोबारियों पर दबाव बढ़ सकता है।
लेकिन इसी के साथ एक उम्मीद की किरण भी है। जैसे-जैसे विदेशी कंपनियाँ चीन से बाहर निकल रही हैं, भारत उनके लिए एक आकर्षक विकल्प बन रहा है। 2024 में भारत ने 15 बिलियन डॉलर का अतिरिक्त foreign investment आकर्षित किया, खासकर मोबाइल मैन्युफैक्चरिंग और टेक्सटाइल सेक्टर में। भारत अब सप्लाई चेन में नई भूमिका निभाने के लिए तैयार हो रहा है।
ट्रंप की नीतियाँ भले ही Deglobalization की आग को हवा दे रही हों, लेकिन Globalization पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। इंटरनेट, क्लाउड टेक्नोलॉजी, डिजिटल फाइनेंस और मल्टीनेशनल बिजनेस अभी भी दुनिया को जोड़ रहे हैं। लेकिन इतना ज़रूर है कि हर देश अब आत्मनिर्भर बनने की दिशा में और तेज़ी से सोचने लगा है।
आने वाले समय में अगर यह रुझान जारी रहता है, तो वह दिन दूर नहीं जब हर देश अपनी सीमाओं में खुद को सुरक्षित रखना चाहेगा। यह नया युग होगा—डिजिटल, प्रोटेक्टिव और शायद थोड़ा अकेला भी। लेकिन एक बात तय है—डोनाल्ड ट्रंप ने Global व्यापार की दिशा हमेशा के लिए बदल दी है। और अब दुनिया के पास दो ही रास्ते हैं—या तो वह एक नई ग्लोबलाइजेशन की परिभाषा गढ़े, या फिर हर देश अपने-अपने खोल में सिमट जाए। सवाल अब सिर्फ इतना है कि भारत कौन-सा रास्ता चुनेगा?
Conclusion
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