आपको शायद यकीन न हो, लेकिन सरकार ने कुछ ऐसा किया है जिसने पूरे संसद को हिला कर रख दिया। सोचिए, गूगल, अमेजन और फेसबुक जैसी विदेशी कंपनियों से हर साल जो करोड़ों रुपये टैक्स के रूप में वसूले जाते थे, वो अब नहीं लिए जाएंगे! जी हां, सरकार ने खुद अपनी आमदनी का एक मोटा हिस्सा छोड़ दिया और जब इस पर सवाल उठा, तो संसद में हंगामा मच गया। विपक्ष ने सरकार पर आरोप लगाए कि यह फैसला अमेरिकी दबाव में लिया गया, वहीं सरकार ने दलील दी कि इससे भारतीय कंपनियों को फायदा होगा।
लेकिन आम आदमी के मन में सवाल उठता है—आखिर ये Equalization Levy थी क्या? क्यों लगाई गई थी? और अब क्यों खत्म कर दी गई? क्या इसके पीछे कोई बड़ा खेल है? या फिर कोई अंतरराष्ट्रीय समझौता? क्या इससे हमारी अर्थव्यवस्था को कोई नुकसान होगा या इससे देश को कोई लंबी अवधि का लाभ मिलेगा? इन तमाम सवालों के जवाब जानना जरूरी है क्योंकि इसका असर, सिर्फ सरकार और विदेशी कंपनियों पर ही नहीं बल्कि भारत के डिजिटल भविष्य पर भी पड़ेगा। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
सबसे पहले बात करते हैं कि ये Equalization Levy आखिर है क्या। दरअसल, ये कोई आम टैक्स नहीं था। यह एक खास तरह का टैक्स था, जिसे उन कंपनियों से वसूला जाता था जिनका बिजनेस ऑनलाइन होता है और जिनकी कोई Physical मौजूदगी भारत में नहीं होती। गूगल, अमेजन, मेटा (फेसबुक) जैसी कंपनियां भारत में अपनी सेवाएं देती हैं, करोड़ों कमा रही हैं, लेकिन चूंकि उनका हेडक्वार्टर अमेरिका में है और भारत में रजिस्टर्ड नहीं हैं,
इसलिए उन पर सामान्य टैक्स नहीं लगाया जा सकता। ऐसे में भारत सरकार ने एक अलग रास्ता निकाला—Equalization Levy। इसका उद्देश्य यह था कि अगर कोई कंपनी भारत से मुनाफा कमा रही है, चाहे वो ऑनलाइन ही क्यों न हो, तो उसे टैक्स देना होगा। इस टैक्स के ज़रिए सरकार यह सुनिश्चित करना चाहती थी कि सभी कंपनियों के लिए एक समान नियम हों, चाहे वो भारत की हों या विदेश की।
सरल भाषा में समझें तो अगर आपने गूगल पर Advertisement दिया, अमेजन पर डिजिटल प्रोडक्ट खरीदा या फेसबुक से प्रमोशन कराया, तो आपने पैसे एक विदेशी कंपनी को दिए। अब क्योंकि ये कंपनियां भारत से कमा रही थीं, तो सरकार चाहती थी कि इन्हें भी टैक्स देना चाहिए—जैसे भारत की कंपनियां टैक्स देती हैं।
इस समानता को बनाए रखने के लिए ही ‘समानता शुल्क’ यानी Equalization Levy का जन्म हुआ। इससे सरकार को हर साल करोड़ों रुपये की आमदनी होती थी। लेकिन इसकी एक खास बात यह भी थी कि यह टैक्स ग्राहकों पर सीधे तौर पर लागू नहीं होता था, बल्कि यह उन भारतीय कंपनियों पर लगता था जो इन विदेशी कंपनियों की सेवाएं खरीदती थीं। यानी अगर कोई भारतीय स्टार्टअप गूगल से ऐड सर्विस ले रहा है, तो उसे उस सेवा की लागत के साथ-साथ Equalization Levy भी चुकानी पड़ती थी।
शुरुआत में यह टैक्स 6 फीसदी था, फिर इसे 2 फीसदी कर दिया गया। इसे 2016 में लागू किया गया था और यह Income Tax Law का हिस्सा नहीं था, बल्कि एक अलग अध्याय के तहत लाया गया था। सरकार को इससे हर साल हजारों करोड़ की आमदनी होती थी।
लेकिन अब यह खत्म कर दिया गया है, और यही फैसला सवालों के घेरे में आ गया है। खासकर तब जब देश की आर्थिक हालत को मजबूत करने की ज़रूरत है, तो ऐसे में सरकार का इतना बड़ा टैक्स छोड़ देना कुछ लोगों को हैरान कर रहा है। हालांकि सरकार का कहना है कि यह long term सोच के तहत लिया गया एक निर्णय है, जो भविष्य में देश के डिजिटल इकोसिस्टम को अधिक Transparent और Competitive बनाएगा।
इस टैक्स के खत्म होने से गूगल, मेटा जैसी कंपनियों को तो फायदा होगा ही, लेकिन सरकार का तर्क है कि इससे भारत की कंपनियों को भी राहत मिलेगी। सरकार का कहना है कि इससे डिजिटल Advertisement सस्ते हो जाएंगे, जिससे खासकर स्टार्टअप्स और छोटे कारोबारियों को बड़ा फायदा होगा। दरअसल, भारत का डिजिटल Advertisement बाजार लगभग 70 हजार करोड़ रुपये का है और इसका 65 प्रतिशत हिस्सा गूगल और मेटा के पास है।
ऐसे में अगर इस पर 6 फीसदी टैक्स लगाया जाता, तो कंपनियों को 3 हजार करोड़ का नुकसान उठाना पड़ता। अब जब यह लेवी हटा दी गई है, तो छोटे व्यवसायों को अपने प्रचार में कम खर्च करना होगा और वे बड़े खिलाड़ियों से मुकाबला करने में थोड़ा सक्षम हो सकेंगे। यह फैसला स्टार्टअप इंडिया जैसे अभियानों के उद्देश्य से भी मेल खाता है।
लेकिन सवाल उठता है कि इस फैसले के पीछे की मंशा क्या सिर्फ व्यापारिक है या कुछ और भी? विपक्ष का कहना है कि यह फैसला अमेरिका के दबाव में लिया गया है, खासकर तब जब डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बने थे और उन्होंने अपने ट्रेड वॉर का रुख भारत की ओर मोड़ दिया था। उन्होंने चाहा कि अमेरिका की कंपनियों को हर देश में विशेष छूट मिले, और भारत ने इसी दबाव में आकर इस टैक्स को खत्म किया है। हालांकि, सरकार ने इन आरोपों से इनकार किया है।
उसका कहना है कि यह फैसला अचानक नहीं हुआ, बल्कि पहले से ही इस पर काम चल रहा था। जुलाई 2024 के बजट में ही 2 फीसदी Equalization Levy को हटाने की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। अब इसे 2026 के fiscal year से पूरी तरह खत्म करने का ऐलान कर दिया गया है।
यानी ये कोई अचानक लिया गया राजनीतिक फैसला नहीं है, बल्कि एक long term योजना का हिस्सा है। इसके पीछे सरकार की मंशा है कि भारत डिजिटल टैक्सेशन को लेकर Global व्यवस्था के साथ तालमेल बिठा सके। साथ ही, इससे यह भी संदेश जाता है कि भारत व्यापार के लिए खुला और सहयोगी देश है।
अब सवाल यह है कि जब सरकार को इससे मोटी कमाई हो रही थी तो इसे हटाने की जरूरत क्यों पड़ी? असल में इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि डिजिटल दुनिया में टैक्सेशन को लेकर अभी तक कोई ग्लोबल मानक नहीं बन पाया है। भारत ने जब यह टैक्स लगाया था, तब भी अमेरिका ने इसकी आलोचना की थी और इसे भेदभावपूर्ण बताया था।
बाद में OECD यानी ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट ने, डिजिटल टैक्स को लेकर एक ग्लोबल फ्रेमवर्क तैयार करने की बात कही, जिसमें भारत भी शामिल हुआ। इस फ्रेमवर्क का उद्देश्य था कि सभी देश एकसमान तरीके से टैक्स व्यवस्था लागू करें, ताकि किसी देश की कंपनियों को नुकसान न हो और न ही व्यापार में असंतुलन पैदा हो।
इस फ्रेमवर्क के तहत तय किया गया कि सभी देश मिलकर एक संयुक्त व्यवस्था बनाएंगे जिससे डिजिटल कंपनियों पर टैक्स लगाया जा सके। इस समझौते के तहत भारत को अपने Equalization Levy को खत्म करना था ताकि Global टैक्स नीति का हिस्सा बना जा सके।
यानी यह फैसला न सिर्फ भारत के हित में है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय सहमति के तहत लिया गया है। यह भी देखा गया है कि भारत जैसे देशों को इस फ्रेमवर्क से लंबी अवधि में अधिक निवेश और व्यापारिक सहयोग मिल सकता है, जिससे देश की डिजिटल इकोनॉमी को बल मिलेगा।
एक और दिलचस्प बात यह है कि अगर भारत इस लेवी को नहीं हटाता, तो अमेरिका उसकी डिजिटल सेवाओं पर टैक्स बढ़ा सकता था या व्यापार में बाधाएं डाल सकता था। यह भारत-अमेरिका व्यापार संबंधों को नुकसान पहुंचा सकता था। ऐसे में भारत को दो रास्ते में से एक चुनना था—या तो घरेलू टैक्स से थोड़ी आमदनी बनाए रखे या global level पर अपने हितों को सुरक्षित करे। भारत ने दूसरा रास्ता चुना। यह एक ऐसा निर्णय है जो सिर्फ वर्तमान को नहीं बल्कि भविष्य को देखते हुए लिया गया है।
फिर भी, संसद में इस मुद्दे पर जोरदार बहस हुई। विपक्ष का कहना था कि सरकार ने अमेरिकी दबाव में झुककर देश के राजस्व का नुकसान किया है। लेकिन सरकार का कहना था कि यह एक दीर्घकालिक लाभ देने वाला फैसला है, जिससे न केवल भारतीय कंपनियों को राहत मिलेगी बल्कि विदेशी निवेशकों को भी यह संदेश जाएगा कि भारत टैक्स को लेकर Transparent और सहयोगी है। सरकार का तर्क यह भी है कि टैक्स से हुई तात्कालिक आमदनी से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है भारत की Global साख और विश्वास।
तो क्या गूगल, अमेजन जैसी कंपनियों से करोड़ों छोड़ देने का फैसला देश के हित में है? या फिर यह अमेरिकी दबाव में लिया गया एक झुकाव है? जवाब आसान नहीं है, लेकिन ये तय है कि डिजिटल दुनिया में टैक्सेशन का यह एक अहम मोड़ है, जहां भारत ने खुद को Global नियमों के अनुरूप ढालने का प्रयास किया है। आने वाले सालों में इसके परिणाम और स्पष्ट होंगे और तब जाकर हम कह पाएंगे कि ये फैसला वास्तव में कितना सार्थक था।
Conclusion:-
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