कुछ तो बड़ा होने वाला है… दुनिया की अर्थव्यवस्था के आसमान पर एक बार फिर काले बादल मंडराने लगे हैं। शेयर बाजार धराशायी हो रहे हैं, कंपनियों में घबराहट है, और आम आदमी की जेब पर फिर से संकट के बादल गहरा रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे एक तूफान धीरे-धीरे आकार ले रहा है, और इसका केंद्र है – अमेरिका। लेकिन वजह सिर्फ एक नाम है – डोनाल्ड ट्रंप। जी हां, वही ट्रंप जो एक बार फिर राष्ट्रपति बने हैं और जिन्होंने एक ऐसा फैसला लिया है जिससे पूरी Global अर्थव्यवस्था कांप गई है। ट्रंप ने जो किया है, वो आने वाले समय में एक भीषण मंदी की आहट बन सकता है।
जेपी मॉर्गन जैसी दिग्गज इनवेस्टमेंट बैंक ने इस बात को लेकर गंभीर चिंता जताई है। उनके चीफ इकोनॉमिस्ट ब्रूस कासमैन ने कहा है कि अगर ट्रंप द्वारा घोषित किए गए टैरिफ लागू रहते हैं और उनका दायरा और प्रभाव बढ़ता है, तो global recession की संभावना 60% तक बढ़ जाएगी। पहले यही संभावना 40% मानी जा रही थी, लेकिन अब हालात तेजी से बदले हैं। इन टैरिफ का असर सिर्फ अमेरिका पर नहीं, बल्कि पूरी दुनिया पर पड़ेगा, खासकर उन देशों पर जो अमेरिका के व्यापारिक साझेदार हैं। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
दरअसल, ट्रंप ने विदेशी सामानों पर भारी टैरिफ लगाने की घोषणा की है। यानी दूसरे देशों से आने वाले Products पर भारी टैक्स। इसका सीधा असर उस देश की कंपनियों पर पड़ेगा जो अमेरिका को अपना सामान बेचती हैं। लेकिन असर यहीं तक सीमित नहीं रहेगा। जब एक बड़ी अर्थव्यवस्था जैसे अमेरिका किसी Global सप्लाई चेन को तोड़ती है, तो इसका झटका बाकी देशों की इकॉनॉमी तक पहुंचता है। यही वजह है कि अब पूरी दुनिया सिहर उठी है।
अमेरिका के इस कदम के बाद शेयर बाजारों में भारी उथल-पुथल देखने को मिली। यह गिरावट 2020 के बाद की सबसे बड़ी गिरावट मानी जा रही है। स्मॉलकैप इंडेक्स रसल 2,000 भी अपने फरवरी के रिकॉर्ड हाई से करीब 10% नीचे आ गया है। यानी Investor डर गए हैं। वे अपनी पूंजी बाजार से निकालने लगे हैं और ये डर सिर्फ अमेरिका में नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में फैल रहा है।
राष्ट्रपति ट्रंप ने एक इंटरव्यू में कहा कि अगर उनके व्यापारिक साझेदार कोई ‘असाधारण पेशकश’ करते हैं, तो वे टैरिफ में ढील देने पर विचार कर सकते हैं। यानी वो अपने टैरिफ को एक सौदेबाजी के औजार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन अर्थशास्त्री मानते हैं कि ऐसे खेल लंबे समय तक अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा सकते हैं। ट्रंप की यह नीति एकतरफा नहीं है। इसका जवाब बाकी देश भी टैरिफ के जरिए देंगे, जिससे एक तरह का व्यापार युद्ध शुरू हो जाएगा।
जेपी मॉर्गन के इकोनॉमिस्ट ब्रूस कासमैन ने इन टैरिफ को 1968 के बाद की सबसे बड़ी टैक्स वृद्धि बताया है, जो सीधे अमेरिकी उपभोक्ताओं और व्यवसायों पर असर डालेगी। जब सामान महंगे होंगे, तो खर्च घटेगा। जब खर्च घटेगा, तो मांग कम होगी और यही चीज मंदी की ओर ले जाती है। इसके अलावा, सप्लाई चेन में रुकावटें और व्यापारिक विश्वास में गिरावट भी इस मंदी को गहरा सकती है।
यह सिर्फ एक अनुमान नहीं है। वॉल स्ट्रीट की कई बड़ी फर्म्स भी अब इस बात से चिंतित हैं। उन्हें लग रहा है कि अगर टैरिफ्स इसी तरह लागू होते रहे, तो अमेरिका की अर्थव्यवस्था अगले कुछ महीनों में मंदी की चपेट में आ सकती है। कंपनियां Investment रोक सकती हैं, नौकरियों में कटौती हो सकती है, और आर्थिक गतिविधियों की रफ्तार थम सकती है। अमेरिका के अलावा चीन, भारत, यूरोप और बाकी देश भी इसकी चपेट में आ सकते हैं।
जेपी मॉर्गन ने हालांकि ये भी कहा है कि वो अपने अनुमान में अभी तुरंत कोई बदलाव नहीं कर रहे। वे देखना चाहते हैं कि इन टैरिफ्स के लागू होने के शुरुआती चरणों में बातचीत कैसे आगे बढ़ती है। लेकिन उन्होंने साफ चेतावनी दी है – अगर ये पॉलिसी जारी रहती है, तो साल के अंत तक मंदी की स्थिति बन सकती है। यानी हमारे पास बहुत ज्यादा समय नहीं है।
ऐसे में सवाल उठता है – क्या ये सिर्फ एक राजनीतिक चाल है या फिर वास्तव में ट्रंप Global अर्थव्यवस्था की दिशा बदलना चाहते हैं? और अगर हां, तो इस दिशा में दुनिया कितनी तैयार है? जब एक बड़ा देश ऐसे कदम उठाता है, तो इसका असर दूर तक जाता है। विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था, खासकर भारत जैसे देश, जो अमेरिकी बाजारों पर निर्भर हैं, उन्हें भी इसके लिए तैयार रहना होगा।
भारत जैसे देश जहां पहले से ही महंगाई, बेरोजगारी और Fiscal deficit की समस्या है, वहां अगर अमेरिका जैसे बड़े बाजार में अस्थिरता आती है, तो एक्सपोर्ट घटेगा। इससे व्यापार घाटा बढ़ेगा और मुद्रा पर दबाव बनेगा। रिजर्व बैंक को हस्तक्षेप करना पड़ेगा और इसका सीधा असर आम आदमी की जेब पर पड़ेगा। यानी वहां टैरिफ लगे और यहां रोटी महंगी हो जाए – ये कोई दूर की बात नहीं है।
ग्लोबल इकॉनॉमी आज पहले से ज्यादा आपस में जुड़ी हुई है। एक देश की नीति दूसरे देश की नींव हिला सकती है। यही वजह है कि जेपी मॉर्गन की ये चेतावनी सिर्फ एक रिसर्च नोट नहीं, बल्कि एक अलार्म बेल है। और सवाल यह है कि क्या हम इस अलार्म को सुन रहे हैं या अनसुना कर रहे हैं?
रही बात अमेरिका की, तो वहां के लोग भी इस नीति से परेशान हो सकते हैं। जब रोजमर्रा की चीजें महंगी होंगी, तो जनता का गुस्सा सरकार पर निकलेगा। और ट्रंप प्रशासन के लिए ये एक राजनीतिक जोखिम भी बन सकता है। लेकिन ट्रंप शायद इसी गुस्से को भुनाना चाहते हैं, ये दिखाकर कि वे विदेशी कंपनियों को टारगेट कर रहे हैं और ‘मेड इन USA’ को बढ़ावा दे रहे हैं।
पर क्या ये नीति वास्तव में अमेरिका को मजबूत बनाएगी या फिर उसे अंदर से खोखला कर देगी? ये सवाल आज हर अर्थशास्त्री के दिमाग में है। कासमैन का मानना है कि इसका असर इतना गहरा हो सकता है कि इसे भविष्य की सबसे बड़ी आर्थिक भूलों में गिना जा सकता है। जब टैक्स की दरें अचानक बढ़ाई जाती हैं और व्यापारिक माहौल पर नकारात्मक असर पड़ता है, तो इसका परिणाम सिर्फ मंदी नहीं, बल्कि वित्तीय संकट भी हो सकता है।
अब जब Global बाजार अस्थिर हो रहे हैं, Investor सोने और डॉलर जैसी सुरक्षित संपत्तियों की ओर भाग रहे हैं। क्रिप्टोकरेंसी में भी तेजी देखी जा रही है, जो इस बात का संकेत है कि बाजारों में डर बढ़ रहा है। डर का यह माहौल ही मंदी को जन्म देता है – जब लोग खर्च करना बंद करते हैं, Investment रुक जाता है, और कंपनियां सिमट जाती हैं।
ट्रंप की ये नीति व्यापार में ‘अमेरिका फर्स्ट’ का नारा तो देती है, लेकिन Global अर्थव्यवस्था को ‘अमेरिका ओनली’ की ओर ले जा रही है। और यही बात आज के समय में सबसे खतरनाक है। Global समस्याएं, जैसे क्लाइमेट चेंज, महामारी या आर्थिक संकट, मिलकर लड़ने से ही हल होते हैं, न कि अलग-अलग होकर।
इसलिए आज जब जेपी मॉर्गन जैसे संस्थान चेतावनी दे रहे हैं, तो पूरी दुनिया को इस पर ध्यान देना होगा। ये सिर्फ एक बैंक का बयान नहीं, बल्कि उस भविष्य की झलक है जो शायद बहुत दूर नहीं, बहुत करीब है। क्या हम तैयार हैं उस भविष्य का सामना करने के लिए? या फिर हम आंखें मूंदे बैठे रहेंगे, जब तक ये तूफान हमारी चौखट पर दस्तक न दे?
Conclusion
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