दुनिया की दो सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्तियाँ एक बार फिर टकरा गई हैं, लेकिन इस बार ये टकराव सिर्फ व्यापारिक नहीं, बल्कि राजनीतिक इगो और रणनीतिक चूक की कहानी बन गया है। एक ऐसा फैसला जो दुनिया की सप्लाई चेन को झकझोर देगा, और एक ऐसा झटका जो किसी को चुपचाप नहीं सहना पड़ेगा।
अमेरिका ने चीन पर 145% का भारी टैरिफ थोप दिया है। लेकिन हैरानी की बात ये है कि यह फैसला अचानक नहीं लिया गया। चीन के राष्ट्रपति शी Jinping को दो महीने पहले ही अमेरिका की मंशा बता दी गई थी। फिर भी उन्होंने एक फोन कॉल करने से इनकार कर दिया। सिर्फ एक कॉल… और आज चीन Global व्यापार के सबसे बड़े आर्थिक झटके का सामना कर रहा है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
सीएनएन की रिपोर्ट के मुताबिक, ट्रंप प्रशासन ने बहुत पहले चीन को आगाह कर दिया था कि अगर शी Jinping, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से Dialogue नहीं करेंगे, तो भारी टैरिफ लगाया जाएगा। अमेरिकी अधिकारियों ने बार-बार चीनी अधिकारियों से आग्रह किया कि शी और ट्रंप के बीच सीधी बातचीत होनी चाहिए, ताकि भविष्य में टकराव की स्थिति से बचा जा सके।
लेकिन चीन का जवाब स्पष्ट और टका-सा था—“बातचीत की कोई जरूरत नहीं।” यह ना सिर्फ Dialogue को ठुकराना था, बल्कि अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा था। अब उसी चूक की कीमत चीन को 145% टैरिफ के रूप में चुकानी पड़ रही है।
ट्रंप की रणनीति शुरू से ही आक्रामक और स्पष्ट रही है। उनका मानना है कि अमेरिका को आर्थिक रूप से फिर से महान बनाना है, और इसके लिए चीन से व्यापारिक असंतुलन खत्म करना जरूरी है। उनका आरोप है कि चीन वर्षों से अमेरिका के साथ अनुचित व्यापार कर रहा है—अमेरिकी टेक्नोलॉजी चुरा रहा है, बाजारों में डंपिंग कर रहा है और अमेरिका की घरेलू इंडस्ट्री को नुकसान पहुंचा रहा है। इसलिए उन्होंने स्पष्ट चेतावनी दी थी—बात करो, वरना टैरिफ झेलो। और अब वही हो रहा है।
चीन के लिए यह सिर्फ एक आर्थिक हमला नहीं है, बल्कि राजनीतिक रूप से भी एक तगड़ा झटका है। अमेरिका ने यह टैरिफ सिर्फ चीन पर लगाया है—ना कि वियतनाम, थाईलैंड, मेक्सिको या भारत जैसे अन्य बड़े Exporter देशों पर। यानी अमेरिका का निशाना बिलकुल साफ है। यह टैरिफ एक सजा है, और एक संदेश भी कि अगर आप अमेरिका के साथ सहयोग नहीं करते, तो इसके नतीजे भुगतने पड़ेंगे। अमेरिका ने पूरी दुनिया को दिखा दिया है कि वो अपनी मर्जी से Global व्यापार के नियम बदल सकता है।
इस टैरिफ के दायरे में सैकड़ों चीनी उत्पाद आते हैं—स्मार्टफोन, लैपटॉप, कंप्यूटर पार्ट्स, टेलीविज़न, खिलौने, कपड़े, ऑटोमोबाइल्स, मशीनरी और अन्य उपभोक्ता सामान। अब इन Products पर अमेरिका में 145% अतिरिक्त टैक्स लगेगा। इसका मतलब है कि या तो ये सामान अमेरिका में महंगे बिकेंगे, या फिर अमेरिकी कंपनियां इन्हें Import करना ही बंद कर देंगी। दोनों ही परिस्थितियों में नुकसान चीन का है, क्योंकि उसकी सबसे बड़ी Export मंडी—अमेरिका—अब उसके लिए लगभग बंद हो चुकी है।
लेकिन चीन भी चुप नहीं बैठा। उसने जवाबी कार्रवाई करते हुए अमेरिका के Products पर 125% तक का टैरिफ लगा दिया है। चीन का दावा है कि वह अपनी अर्थव्यवस्था की रक्षा के लिए कोई भी कदम उठाने से पीछे नहीं हटेगा। लेकिन हकीकत यह है कि चीन अमेरिका से जितना Import करता है, वह अमेरिका को किए गए उसके Export का एक अंश भर है। यानी जवाबी टैरिफ का असर सीमित होगा। असली नुकसान चीन को ही होगा।
2023 में चीन ने अमेरिका को करीब 500 अरब डॉलर का सामान Export किया था, जबकि अमेरिका ने चीन को केवल 145 अरब डॉलर का माल भेजा था। यही आंकड़ा यह बताने के लिए काफी है कि टैरिफ की मार किसे ज्यादा झेलनी पड़ेगी। चीनी कंपनियों के ऑर्डर अब रद्द होने लगे हैं, फैक्ट्रियों में Production घट रहा है, और foreign investors का भरोसा डगमगाने लगा है।
इस बीच अमेरिका के अंदर भी चिंता की लहर है। कई अर्थशास्त्री चेतावनी दे रहे हैं कि टैरिफ से अमेरिका को भी नुकसान होगा। क्योंकि अमेरिकी कंपनियां, खासकर टेक इंडस्ट्री, चीन से सस्ते कच्चे माल और पुर्जों पर निर्भर हैं। टैरिफ के कारण ये चीजें महंगी हो जाएंगी, जिससे लागत बढ़ेगी, और अंततः कीमतों में वृद्धि होगी। यानी महंगाई बढ़ेगी, उपभोक्ता नाराज़ होंगे, और घरेलू बाजार पर दबाव बढ़ेगा।
लेकिन ट्रंप को लगता है कि यह छोटा सा बलिदान है, जिसे अमेरिका Long term benefits के लिए सह सकता है। उनका फोकस है—अमेरिका को आत्मनिर्भर बनाना, घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देना और चीन की आर्थिक ताकत को सीमित करना। उनके समर्थकों का मानना है कि ट्रंप चीन को झुकाने में सफल होंगे, जैसा वे पहले भी कई बार कर चुके हैं।
इस पूरे टकराव में एक और मुद्दा धीरे-धीरे उभर रहा है—TikTok। अमेरिका चाहता है कि TikTok का मालिकाना हक किसी अमेरिकी कंपनी के पास जाए, ताकि अमेरिकी यूज़र्स का डेटा सुरक्षित रह सके। अगर शी Jinping और ट्रंप के बीच बातचीत होती, तो शायद टैरिफ और TikTok दोनों मुद्दों पर एक बड़ी डील हो सकती थी। लेकिन अब हालात तनावपूर्ण हैं, और कोई रास्ता नहीं दिख रहा।
चीन की दुविधा यह है कि वह बातचीत शुरू करने के लिए कोई उपयुक्त मंच तलाश रहा है। लेकिन समय बीतता जा रहा है। हर बीतते दिन के साथ नुकसान बढ़ता जा रहा है। अधिकारी एक-दूसरे से बात कर रहे हैं, लेकिन उच्च स्तर पर कोई Dialogue नहीं हो रहा। यह एक कूटनीतिक गतिरोध है, जिसका हल Dialogue से ही निकल सकता है—लेकिन वो Dialogue हो ही नहीं रहा।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि शी Jinping का अहंकार और अमेरिका के प्रति अविश्वास उन्हें Dialogue से दूर कर रहा है। उन्हें डर है कि ट्रंप बातचीत में अपनी शर्तें थोपेंगे। लेकिन अब जबकि टैरिफ लागू हो चुका है, तो शर्तें पहले से कहीं अधिक कठोर हो सकती हैं। चीन का सौदेबाजी का समय बीत चुका है।
इस टैरिफ वॉर का असर सिर्फ इन दोनों देशों तक सीमित नहीं रहेगा। पूरी दुनिया, खासकर भारत जैसे उभरते हुए बाजार, इससे प्रभावित होंगे। Global सप्लाई चेन में बदलाव आएगा। Investors को नई जगहों की तलाश करनी होगी। और Global अर्थव्यवस्था को फिर से संतुलन में आने में समय लगेगा।
अगर शी Jinping अब भी बातचीत को टालते हैं, तो आने वाले समय में चीन को और भी कठोर प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है। ट्रंप का इरादा सिर्फ टैरिफ तक सीमित नहीं है। वो चीन को व्यापार, टेक्नोलॉजी, सैन्य और कूटनीतिक स्तर पर अलग-थलग करना चाहते हैं। और अगर इस दिशा में अमेरिका सफल होता है, तो चीन के लिए 21वीं सदी का ‘सुपरपावर बनने का सपना’ बहुत पीछे छूट जाएगा।
ये पूरा घटनाक्रम हमें यह सिखाता है कि दुनिया की राजनीति अब केवल मिसाइल या सेना से नहीं चलती, बल्कि बातचीत, संचार और वक्त पर सही निर्णय लेने की कला से चलती है। एक कॉल, एक मीटिंग, एक सौदा—यह सब कुछ बदल सकता है। लेकिन जब इन सबका स्थान अहंकार ले लेता है, तो तबाही तय होती है।
Conclusion:-
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