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Tariff से चमक सकता है भारत का भाग्य? ट्रंप की जिद और 95 साल पुरानी मंदी से निकले नए मौके!

Tariff

अक्सर इतिहास हमें यह सिखाता है कि अगर हमने पुरानी गलतियों से सबक नहीं लिया, तो वह गलतियां खुद को दोहराने लगती हैं। लेकिन क्या हो अगर कोई राष्ट्रपति इतिहास से आंख मूंद ले? क्या हो अगर 95 साल पुरानी एक आर्थिक तबाही की कहानी दोबारा हमारे सामने खड़ी हो जाए? यही सवाल आज दुनिया के सामने है। और इसकी वजह हैं डोनाल्ड ट्रंप, जिनकी Tariff की जिद अब Global अर्थव्यवस्था को एक बार फिर मंदी के भंवर में झोंक सकती है।

आज की यह कहानी न सिर्फ अतीत की चेतावनियों को दोहराती है, बल्कि भविष्य की संभावित त्रासदी की ओर भी इशारा करती है। यह सिर्फ एक आर्थिक मुद्दा नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की स्थिरता और लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़ा संकट बन चुका है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

ट्रंप द्वारा शुरू किया गया टैरिफ युद्ध अब Global बाजारों को सुलगाने लगा है। ट्रंप जिसे ‘कड़वी दवा’ कह रहे हैं, वो अब पूरे वित्तीय जगत में कोहराम मचा रही है। भारत के सेंसेक्स और निफ्टी में जबरदस्त गिरावट आई, एक ही दिन में Investors के 14 लाख करोड़ रुपये डूब गए। अमेरिका की स्टॉक मार्केट भी इससे अछूती नहीं रही। जेपी मोर्गन जैसी बैंकिंग संस्था चेतावनी दे चुकी है कि इस टैरिफ युद्ध के चलते Global मंदी की संभावना 60% तक पहुंच चुकी है।

ये वही गलती लग रही है जो 1930 के स्मूट-हॉले टैरिफ एक्ट के ज़रिए हर्बर्ट हूवर ने की थी। फर्क बस इतना है कि उस समय दुनिया सूचना क्रांति से वंचित थी, लेकिन आज के दौर में हर कदम का असर कुछ ही मिनटों में पूरी दुनिया में फैल जाता है।

1930 में अमेरिका ने 20,000 से ज्यादा वस्तुओं के Import पर टैरिफ 20 प्रतिशत तक बढ़ा दिए थे। ये कानून उस समय लागू किया गया जब Global अर्थव्यवस्था पहले से ही डगमगाई हुई थी। बदले में दुनिया के कई देशों ने भी अमेरिका से Import पर टैरिफ लगा दिए और अंतरराष्ट्रीय व्यापार ठप पड़ गया। परिणामस्वरूप Global मंदी और भी गंभीर हो गई। यही डर अब फिर से मंडरा रहा है, क्योंकि ट्रंप उसी राह पर चलते नजर आ रहे हैं। जब कोई बड़ी शक्ति अपने फायदे के लिए बाकी दुनिया की अनदेखी करती है, तो उसकी कीमत सबको चुकानी पड़ती है। और आज यही स्थिति बनती जा रही है।

उस दौर में स्मूट-हॉले टैरिफ एक्ट को अमेरिका के किसानों और व्यापार को बचाने के नाम पर लाया गया था। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद यूरोप तो उबर चुका था, लेकिन अमेरिकी किसान भारी संकट में थे। यूरोपीय कृषि उत्पादन ने अमेरिकी बाजारों पर दबाव बना दिया और किसानों की लागत तक नहीं निकल रही थी। तब राष्ट्रपति हर्बर्ट हूवर ने चुनाव प्रचार के दौरान वादा किया कि वे किसानों को Protection देंगे और Import पर भारी टैरिफ लगाएंगे। इस वादे ने उन्हें सत्ता दिलाई, लेकिन सत्ता में आते ही उन्होंने जो कदम उठाया, उसने अमेरिका को संकट में धकेल दिया। उनका इरादा भले ही अच्छा रहा हो, लेकिन उसका Implementation Global संदर्भ में आत्मघाती साबित हुआ।

जब 1929 में अमेरिकी शेयर बाजार भरभराकर गिरा, तब हूवर का Protectionist रुख और आक्रामक हो गया। उन्होंने 1930 में स्मूट-हॉले टैरिफ एक्ट पास किया, जिससे व्यापारिक वस्तुओं पर भारी टैक्स लगा। इसके बाद 25 से ज्यादा देशों ने अमेरिका के खिलाफ जवाबी टैरिफ लगाए। अंतरराष्ट्रीय व्यापार में 65% की गिरावट आई। Global अर्थव्यवस्था ठप हो गई। ये टैरिफ युद्ध, उस महामंदी की आग में घी डालने जैसा साबित हुआ। नतीजा यह हुआ कि अमेरिका की आर्थिक स्थिति भी तेजी से बिगड़ने लगी और विश्व के अन्य देश भी इस गिरावट की चपेट में आ गए।

स्मूट-हॉले टैरिफ एक्ट का नाम उसके दो प्रायोजकों—सीनेटर रीड स्मूट और सांसद विलिस हॉले—के नाम पर पड़ा। यह कानून उन राजनीतिक आकांक्षाओं का परिणाम था, जिनमें लोकप्रियता की खातिर Global नुकसान की अनदेखी कर दी गई। 1930 के इस एक्ट ने अमेरिकी उद्योगों को राहत देने के बजाय उन्हें और ज्यादा संकट में डाल दिया। न सिर्फ घरेलू महंगाई बढ़ी, बल्कि अमेरिका का Export भी बुरी तरह प्रभावित हुआ। यह एक ऐसा उदाहरण बन गया कि कैसे लोकलुभावन फैसले, जब International coordination के बिना किए जाते हैं, तो वे खुद अपने देश के लिए भी घातक बन सकते हैं।

इतिहास गवाह है कि टैरिफ युद्ध का कोई विजेता नहीं होता। जवाबी टैरिफ से पैदा हुआ ये संघर्ष उस वक्त इतना बढ़ गया कि 1929 से 1934 के बीच, अंतरराष्ट्रीय व्यापार लगभग 65 प्रतिशत गिर गया। जहां एक ओर exporters की कमर टूटी, वहीं उपभोक्ताओं को महंगे उत्पादों का बोझ झेलना पड़ा। यही हाल आज फिर दिखने लगा है—दुनिया भर में महंगाई बढ़ रही है, व्यापार धीमा हो रहा है, और देशों के बीच विश्वास की खाई और गहरी होती जा रही है।

यह वही दौर था जब पूरी दुनिया पहले से ही मंदी की चपेट में आ रही थी। 1929 में अमेरिका में शेयर बाजार का क्रैश हुआ जिसे ‘ब्लैक थर्सडे’ कहा गया। इसी के साथ ग्रेट डिप्रेशन की शुरुआत हो गई। स्टॉक मार्केट के गिरने के बाद, उद्योग-धंधे बंद होने लगे, बेरोजगारी चरम पर पहुंच गई और बैंक एक-एक कर दिवालिया होने लगे। हूवर की टैरिफ नीति ने आग में घी का काम किया। और आज का परिदृश्य उस दौर से कितना अलग है? शायद नहीं। फर्क बस इतना है कि आज हमारे पास चेतावनी के लिए अतीत की कहानियां मौजूद हैं।

ट्रंप द्वारा उठाए जा रहे कदम हूवर की गलतियों को दोहराते नजर आ रहे हैं। चीन पर लगाया गया 54% का टैरिफ, भारत पर 26%, और अन्य एशियाई देशों पर 44% तक का भारी शुल्क बताता है कि ट्रंप Global व्यापार को अपनी राजनीति का मोहरा बना रहे हैं। इसका नतीजा यह है कि दुनियाभर के शेयर बाजारों में हाहाकार मचा हुआ है और मंदी की आशंका गहराती जा रही है। अर्थव्यवस्था एक बेहद संवेदनशील संरचना होती है, और जब उसमें राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ता है, तो उसका संतुलन बिगड़ना तय है।

सवाल ये है कि क्या इतिहास से कोई सबक नहीं सीखा गया? क्या ट्रंप यह नहीं देख पा रहे कि जिस रास्ते पर वे जा रहे हैं, वो Global अर्थव्यवस्था को एक बार फिर अंधेरे में धकेल सकता है? क्या उनकी यह टैरिफ नीति अमेरिका को ही अंदर से खोखला नहीं कर देगी? Global व्यापार के वर्तमान ढांचे को तोड़ना आसान है, लेकिन उसे फिर से खड़ा करना बेहद मुश्किल होता है। और इसका नुकसान हर उस आम आदमी तक पहुंचता है जो Global अर्थव्यवस्था का हिस्सा है।

1932 में जब फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट ने राष्ट्रपति पद संभाला, तब उन्होंने स्मूट-हॉले टैरिफ को खत्म करने का संकल्प लिया। उन्होंने 1934 में रेसिप्रोकल ट्रेड एग्रीमेंट एक्ट पास कर टैरिफ को कम किया और Global व्यापार में सुधार लाने की कोशिश की। इस नीति ने धीरे-धीरे अमेरिकी अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने का काम किया। लेकिन इसके लिए समय और समझदारी दोनों की जरूरत पड़ी थी। और सबसे अहम बात ये थी कि रूजवेल्ट ने अंतरराष्ट्रीय सहयोग की अहमियत को पहचाना और उसे प्राथमिकता दी।

आज अगर ट्रंप उसी गलती को दोहराते हैं, तो उन्हें समझना होगा कि इसका खामियाजा केवल अमेरिका को ही नहीं, पूरी दुनिया को भुगतना पड़ेगा। जेपी मोर्गन जैसी संस्थाएं मंदी की आशंका पहले ही जाहिर कर चुकी हैं। दुनिया के कई देश जवाबी टैरिफ की जगह कूटनीति की राह पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन कब तक? हर देश की एक सीमा होती है, और जब दबाव असहनीय हो जाता है, तो उन्हें भी जवाब देना ही पड़ता है। यही वजह है कि अब स्थिति नियंत्रण से बाहर होने लगी है।

अमेरिका को चाहिए कि वह अपने टैरिफ नीति पर पुनर्विचार करे। व्यापारिक सहयोग, पारस्परिक लाभ और Global स्थिरता के मूल सिद्धांतों की ओर लौटे। क्योंकि अगर ये जिद जारी रही, तो एक बार फिर हम उसी इतिहास को दोहराते देखेंगे, जहां मंदी, बेरोजगारी और Global अस्थिरता हर देश के दरवाजे पर दस्तक देगी। और तब कोई भी देश, चाहे वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, अकेले इस तूफान से नहीं निपट पाएगा। यही समय है जब बुद्धिमानी से निर्णय लिया जाए।

यह वक्त है सोचने का, समझने का और Global जिम्मेदारी निभाने का। वरना स्मूट-हॉले की वो डरावनी कहानी फिर से हमारे सामने जीवित हो जाएगी, और इस बार उसका असर और भी विनाशकारी हो सकता है। यह सिर्फ चेतावनी नहीं, बल्कि एक अवसर है इतिहास को न दोहराने का।

Conclusion

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