आपको ये जानकर हैरानी होगी कि अगले कुछ महीनों में अमेरिका जैसे ताकतवर और विकसित देश में लोगों को दवाइयों के लिए तरसना पड़ सकता है। अस्पतालों में इलाज महंगा हो सकता है, बीमारियां लंबी खिंच सकती हैं, और सामान्य नागरिकों की जेब पर भारी असर पड़ सकता है। और इस पूरे संकट की जड़ में है अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का एक नया फैसला।
ऐसा फैसला जो उन्होंने भारत से आने वाले सामानों पर भारी भरकम Tariff लगाकर लिया है। लेकिन क्या ट्रंप का ये कदम सिर्फ भारत को नुकसान पहुंचाने के लिए उठाया गया? या फिर इस फैसले की मार खुद अमेरिकी नागरिकों पर ज्यादा पड़ेगी? यही है हमारी आज की कहानी, जो भारत-अमेरिका के व्यापारिक रिश्तों, दवाओं की दुनिया और राजनीतिक फैसलों की गहराई में ले जाएगी।
9 अप्रैल 2025 से डोनाल्ड ट्रंप द्वारा घोषित 26% रेसिप्रोकल टैरिफ को अस्थाई रूप से 90 दिनों के लिए रोका गया है। लेकिन ये फैसला सिर्फ एक अस्थाई राहत है, स्थाई समाधान नहीं। ट्रंप ने ये टैरिफ भारत से अमेरिका को Export होने वाले सामानों पर लगाया है। इस टैरिफ की आड़ में वो यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि अब अमेरिका किसी भी देश से समान व्यापार चाहता है। लेकिन इसके पीछे की सच्चाई ये है कि भारत से अमेरिका को सबसे अधिक लाभ होता है – खासकर फार्मास्युटिकल सेक्टर में।
भारत को ‘फार्मेसी ऑफ द वर्ल्ड’ कहा जाता है। ये सिर्फ एक नाम नहीं बल्कि हकीकत है। दुनियाभर के लाखों-करोड़ों लोगों को भारत से बनी सस्ती, भरोसेमंद और प्रभावशाली जेनेरिक दवाएं मिलती हैं। अमेरिका भी इससे अछूता नहीं है। वित्तीय वर्ष 2024 में भारत ने अमेरिका को करीब 8.7 अरब डॉलर की दवाओं का Export किया, जो भारत के कुल फार्मा Export का लगभग 31% है। यानी भारत की फार्मा इंडस्ट्री की कमाई का एक बड़ा हिस्सा अमेरिका से आता है।
लेकिन इस रिश्ते का एक और पहलू है – अमेरिका की निर्भरता। अमेरिका में इस्तेमाल की जाने वाली लगभग 47% जेनेरिक दवाएं भारत से ही जाती हैं। यानि वहां के मरीज, डॉक्टर और अस्पताल भारतीय दवाओं पर पूरी तरह निर्भर हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक, इन भारतीय दवाओं की वजह से अमेरिकी स्वास्थ्य व्यवस्था को साल 2022 में लगभग 408 अरब डॉलर की बचत हुई थी। ये आंकड़े बताते हैं कि भारत-अमेरिका का फार्मा व्यापार सिर्फ लाभ का सौदा नहीं, बल्कि जरूरत बन चुका है।
ट्रंप के टैरिफ लागू होने से सबसे पहले असर देखने को मिलेगा अमेरिकी नागरिकों पर दवाएं महंगी होंगी। गरीब और मध्यम वर्ग के लोग इलाज से कतराने लगेंगे। हेल्थ इंश्योरेंस कंपनियों का दबाव बढ़ेगा और अस्पतालों की लागत भी। ये पूरा चक्र अमेरिका की हेल्थकेयर व्यवस्था को झकझोर कर रख सकता है। और ऐसे में सवाल उठता है – क्या ट्रंप की ये नीति राजनीतिक स्टंट है या दूरदर्शिता की कमी?
इस फैसले की सीधी प्रतिक्रिया भारत की फार्मा कंपनियों ने भी दी है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि अगर टैरिफ लागू होता है तो इसका भार उपभोक्ताओं पर डाला जा सकता है। यानी अमेरिका के लोगों को अब ज्यादा कीमत देकर वही दवाएं खरीदनी होंगी। सन फार्मा के एमडी दिलीप सांघवी ने कहा कि वे अमेरिका में 1 से 5 डॉलर प्रति बोतल की दर से दवाएं बेचते हैं। अब अगर उस पर 10% या 25% का टैरिफ लगता है, तो ये सीधा असर उनकी लागत और कीमत पर डालेगा।
ऐसे समय में अमेरिका को दोबारा सोचना पड़ेगा कि क्या वो भारत से जेनेरिक दवाओं के बदले चीन या अन्य किसी देश पर भरोसा कर सकता है? जवाब है – मुश्किल है। क्योंकि भारत की जेनेरिक दवा बनाने की क्षमता, गुणवत्ता नियंत्रण, और Global distribution नेटवर्क को टक्कर देना आसान नहीं है। भारत के पास अनुभव, स्केलेबिलिटी और लागत-कुशल उत्पादन है – जो किसी भी दूसरे देश के पास नहीं।
ट्रंप की यह नीति भारतीय कंपनियों को सिर्फ चुनौती नहीं दे रही बल्कि उन्हें अमेरिकी बाजार में अपने मूल्य को दोबारा सिद्ध करने का अवसर भी दे रही है। हालांकि चुनौतियाँ हैं – जैसे रॉ मटेरियल की लागत, लॉजिस्टिक्स की जटिलता और अमेरिकी प्रशासन के नए नियम। लेकिन भारत की फार्मा इंडस्ट्री पहले भी इनसे पार पाई है और अब भी उम्मीद की जा रही है कि वह रास्ता निकाल लेगी।
इस बीच भारतीय फार्मास्युटिकल एलायंस के महासचिव सुधर्शन जैन ने कहा है कि यह मुद्दा आपसी बातचीत से सुलझाया जा सकता है। उन्होंने आशा जताई है कि भारत और अमेरिका के बीच संवाद चलता रहेगा और समाधान की दिशा में कोई ठोस कदम निकलेगा। क्योंकि ये सिर्फ दो देशों का मामला नहीं है, ये करोड़ों जिंदगियों का सवाल है – जिनका इलाज इन जेनेरिक दवाओं पर निर्भर है।
सवाल ये है कि अगर अमेरिका को नुकसान ही होना है तो फिर ट्रंप ने ऐसा टैरिफ लगाया क्यों? क्या यह चुनावी रणनीति है या चीन पर दबाव डालने की आड़ में भारत को नुकसान पहुंचाने की कोशिश? हो सकता है ट्रंप चीन से व्यापार घाटा कम करने के प्रयास में भारत को भी उसी तराजू में तोल रहे हों। लेकिन सच्चाई ये है कि भारत की स्थिति चीन से अलग है – भारत न केवल सहयोगी है, बल्कि एक भरोसेमंद सप्लायर भी।
दूसरी ओर, अमेरिका में हेल्थकेयर लॉबी और फार्मा सेक्टर के हितधारक भी इस टैरिफ को लेकर चिंतित हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि अगर भारत की सप्लाई चेन रुकती है तो अमेरिका में न सिर्फ दवाइयों की कीमतें बढ़ेंगी, बल्कि संकट भी गहराएगा। ब्लैक मार्केट, नकली दवाओं और दवाओं की किल्लत की आशंका भी बढ़ सकती है।
भारत सरकार भी इस मुद्दे पर सक्रिय हो गई है। विदेश मंत्रालय, वाणिज्य मंत्रालय और फार्मा मंत्रालय के बीच उच्च स्तरीय बैठकें चल रही हैं ताकि, अमेरिका से बातचीत कर इस मुद्दे को कूटनीतिक तरीके से हल किया जा सके। भारत यह बात स्पष्ट करना चाहता है कि एकतरफा टैरिफ न केवल अनुचित है, बल्कि असमर्थनीय भी।
अगर हम इतिहास को देखें तो भारत और अमेरिका के बीच फार्मा ट्रेड ने हमेशा दोनों देशों को फायदा दिया है। भारत को डॉलर में कमाई हुई और अमेरिका को सस्ती दवाइयां मिलीं। अब अगर टैरिफ की दीवार खड़ी होती है तो नुकसान दोनों तरफ होगा – लेकिन अमेरिका को कहीं ज्यादा, क्योंकि भारत के पास तो अन्य देश भी हैं जो उसकी दवाओं को खरीदने को तैयार हैं।
इस पूरे घटनाक्रम से एक और बात स्पष्ट होती है – ग्लोबल सप्लाई चेन कितनी नाजुक होती है और कैसे एक राजनीतिक फैसला लाखों लोगों की जिंदगी पर असर डाल सकता है। ऐसे में आने वाले हफ्तों में ये देखना दिलचस्प होगा कि ट्रंप अपने फैसले पर अड़े रहते हैं या अंतरराष्ट्रीय दबाव के सामने झुकते हैं।
अभी के लिए 90 दिन की मोहलत जरूर दी गई है, लेकिन यह समय भारत और अमेरिका दोनों के लिए निर्णायक होगा। अगर ये मुद्दा बातचीत से हल होता है तो दो देशों के बीच रिश्ते और मजबूत होंगे। और अगर नहीं, तो एक global pharma crisis जन्म ले सकता है – जिसकी सबसे बड़ी कीमत अमेरिका को चुकानी पड़ेगी।
भारत को भी इस समय का लाभ उठाकर अपनी घरेलू और Global strategy को मजबूत करने की जरूरत है। आत्मनिर्भर भारत के सपने के तहत भारत को चाहिए कि वह ना सिर्फ अमेरिका बल्कि यूरोप, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में भी अपने फार्मा नेटवर्क को और विस्तारित करे।
अंत में यही कहा जा सकता है कि दवाइयों पर राजनीति करना सिर्फ खतरनाक नहीं, बल्कि अनैतिक भी है। क्योंकि ये व्यापार नहीं, इंसानी जिंदगियों का मामला है। ट्रंप की टैरिफ नीति चाहे जैसी भी हो, उसे ये नहीं भूलना चाहिए कि एक अच्छे नेता की पहचान उसकी दूरदर्शिता से होती है – और दूरदर्शिता वही होती है जो केवल फायदा नहीं, बल्कि ज़रूरत को पहचानती है। क्या ट्रंप ये समझ पाएंगे कि जेनेरिक दवाएं सिर्फ सस्ते विकल्प नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की जिंदगी की उम्मीद हैं? या फिर एक बार फिर राजनीति के नाम पर इंसानियत को ही नजरअंदाज कर दिया जाएगा?
Conclusion

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