क्या आपने कभी कल्पना की है कि दो ताकतवर देशों की लड़ाई आपके घर का बजट बदल सकती है? वह भी आपके फायदे में? यही हो रहा है इस वक्त अमेरिका और चीन के बीच के Tariff वॉर में। अमेरिका ने चीन से आने वाले Products पर 125% तक की भारी-भरकम ड्यूटी लगा दी है। यह निर्णय केवल दो देशों के व्यापारिक रिश्तों को नहीं हिला रहा, बल्कि पूरी दुनिया की सप्लाई चेन को नए रास्ते दिखा रहा है।
और इस नई राह पर सबसे पहले कदम रख रहा है भारत। क्योंकि अब चीन की कंपनियां नए बाजार तलाश रही हैं, और भारत इस रेस में सबसे आगे खड़ा है—बाजार भी है, मांग भी है, और अब एक नई सोच भी है। यह मौका है भारत के लिए, और राहत है भारतीय ग्राहकों के लिए। क्योंकि आने वाले महीनों में टीवी, फ्रिज, मोबाइल जैसे प्रोडक्ट सस्ते हो सकते हैं, और इसके पीछे है एक बहुत ही गहरी रणनीति। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
आपको बता दें कि यह सब अचानक शुरू नहीं हुआ। ट्रंप प्रशासन और चीन के बीच का यह टैरिफ युद्ध धीरे-धीरे एक भयंकर युद्ध में बदल गया है। 2 अप्रैल को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पहली बार चीन पर 54% का टैरिफ लगाया।
जवाब में चीन ने भी पीछे नहीं हटते हुए अमेरिकी Products पर 34% टैक्स लगा दिया। यह एकतरफा जवाब नहीं था, यह एक चेतावनी थी—कि चीन झुकेगा नहीं। लेकिन ट्रंप तो झुकने वाले थे ही नहीं। उन्होंने जवाबी कार्रवाई करते हुए टैरिफ को 104% तक बढ़ा दिया। चीन ने फिर 84% का टैक्स लगा दिया। और जब यह भी कम लगा, तो 9 अप्रैल को ट्रंप ने एक बड़ा फैसला लेते हुए टैरिफ को 125% तक पहुँचा दिया। इस फैसले ने पूरी दुनिया के व्यापारिक समीकरणों को हिला दिया।
अब इस व्यापारिक युद्ध का एक और पक्ष सामने आया है—भारतीय उपभोक्ता और कंपनियों के लिए सुनहरा अवसर। जब अमेरिका ने चीन से सामान लेना महंगा कर दिया, तो चीन की कंपनियों के पास ऑर्डर घटने लगे। जो माल पहले अमेरिका के गोदामों में पहुंचता था, अब चीन की फैक्ट्रियों में स्टॉक बनकर जमा होने लगा।
एक वक्त आता है जब उत्पादन कम नहीं होता, लेकिन खरीदार गायब हो जाते हैं। और यहीं से शुरू होता है “डिस्काउंट का खेल।” अब चीन की बड़ी-बड़ी कंपनियां भारत जैसे देशों को टारगेट कर रही हैं, ताकि उनके उत्पाद कहीं तो बिक सकें। भारतीय कंपनियों को 5% तक की छूट की पेशकश की जा रही है—और ये छूट केवल कंपनियों तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि ग्राहकों की जेब तक भी पहुंचेगी।
गोदरेज एंटरप्राइजेज ग्रुप में अप्लायंस बिजनेस के हेड कमल नंदी कहते हैं, “चीन में डिमांड घटने से कंपोनेंट मैन्युफैक्चरर्स पर दबाव बना है। ऐसे में भारतीय कंपनियों के पास अब रेट्स को लेकर फिर से बातचीत करने का मौका है, जो कीमतों में कटौती का रास्ता खोल सकता है।” इसका सीधा मतलब है कि बाजार में आने वाले हफ्तों और महीनों में प्रोडक्ट्स की कीमतों में गिरावट देखने को मिल सकती है। उपभोक्ताओं को वही गुणवत्ता, वही ब्रांड, लेकिन सस्ते दामों पर मिल सकता है। इससे न केवल ग्राहकों को राहत मिलेगी, बल्कि घरेलू डिमांड में भी उछाल आ सकता है, जो भारत की अर्थव्यवस्था के लिए फायदेमंद होगा।
सुपर प्लास्ट्रॉनिक्स के सीईओ अवनीत सिंह मारवाह ने यह भी साफ किया कि चीन की फैक्ट्रियों में उत्पादन लगातार बढ़ रहा है, लेकिन अमेरिका से नए ऑर्डर न मिलने की वजह से उन पर दबाव है। कंपनियां अब न केवल स्टॉक क्लियर करना चाहती हैं, बल्कि नए ऑर्डर लेने के लिए किसी भी कीमत पर तैयार हैं। यह परिस्थिति भारतीय कंपनियों के लिए बेहद अनुकूल है। अब वे अपने पुराने आपूर्तिकर्ताओं के बजाय चीन से सीधे बेहतर कीमत पर कंपोनेंट्स मंगा सकती हैं। और जब लागत घटेगी, तो कीमत भी गिरेगी। यही है वो ‘डोमिनो इफेक्ट’ जो आम आदमी के बजट को राहत पहुंचाएगा।
अब आते हैं एक और अहम बिंदु पर—भारत की आत्मनिर्भरता। पिछले कुछ वर्षों में भारत सरकार ने Make in India और आत्मनिर्भर भारत जैसे अभियानों को तेज़ किया है। इसका असर अब दिखाई देने लगा है। GTRI की रिपोर्ट बताती है कि वित्त वर्ष 2024 में भारत का इलेक्ट्रॉनिक कंपोनेंट Import, 37% बढ़कर 34 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया। यह आंकड़ा बताता है कि भारत में मांग तेज़ी से बढ़ रही है, और अगर यह मांग लोकल प्रोडक्शन से पूरी हो, तो हमारी अर्थव्यवस्था को ज़बरदस्त बल मिल सकता है।
सरकार के कई फैसले जैसे PLI स्कीम (Production Linked Incentive), क्वालिटी कंट्रोल ऑर्डर (QCO), और Import duty में बढ़ोतरी अब घरेलू कंपनियों को अपने पैरों पर खड़ा कर रही हैं। नतीजा यह है कि भारतीय कंपनियां अब सिर्फ असेंबली नहीं कर रही हैं, बल्कि खुद कंपोनेंट्स मैन्युफैक्चरिंग की ओर बढ़ रही हैं। इंडिया सेल्युलर एंड इलेक्ट्रॉनिक्स एसोसिएशन का लक्ष्य है कि 2030 तक, भारत की कंपोनेंट मैन्युफैक्चरिंग 145 से 155 बिलियन डॉलर तक पहुंच जाए। यह लक्ष्य महत्वाकांक्षी जरूर है, लेकिन असंभव नहीं—खासकर तब, जब चीन-अमेरिका जैसे देश आपस में उलझे हों और भारत को विकल्प के रूप में स्वीकार किया जा रहा हो।
अब सवाल ये है—आखिर इस सबका फायदा किसे मिलेगा? इसका सीधा सा उत्तर है—आपको और मुझे। जो स्मार्टफोन आज 20,000 में मिल रहा है, वह कल 18,000 में मिल सकता है। जो टीवी 45,000 का है, वह 40,000 में आ सकता है। फ्रिज, वॉशिंग मशीन, एयर कंडीशनर जैसे रोज़मर्रा के उपकरण अब पहले से सस्ते हो सकते हैं। और ये छूट केवल शुरुआत भर है। जैसे-जैसे भारत का Import चीन से बढ़ेगा और कीमतें गिरेंगी, प्रतिस्पर्धा भी बढ़ेगी। कंपनियां ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए बेहतर प्रोडक्ट्स, बेहतर वारंटी और नई टेक्नोलॉजी लाने के लिए मजबूर होंगी।
लेकिन यहां एक चेतावनी भी है। यदि भारत इस मौके को सिर्फ सस्ते Import के रूप में देखेगा, और खुद उत्पादन बढ़ाने की दिशा में ठोस कदम नहीं उठाएगा, तो यह मौका फिर से हाथ से निकल सकता है। इसलिए यह ज़रूरी है कि भारत इस स्थिति का लाभ उठाकर खुद को तकनीकी रूप से सशक्त बनाए। स्किल डेवलपमेंट, इनोवेशन, स्टार्टअप्स और रिसर्च पर ज़ोर दिया जाए ताकि हम केवल उपभोक्ता नहीं, निर्माता बनें। तभी यह फायदा स्थायी होगा और देश को असली आत्मनिर्भरता मिलेगी।
इस पूरी स्थिति को global perspective में देखें तो चीन और अमेरिका की लड़ाई में दुनिया की सप्लाई चेन नया संतुलन खोज रही है। कंपनियां अब “चाइना प्लस वन” रणनीति अपना रही हैं, जिसका सीधा फायदा भारत को हो सकता है। अगर भारत इस ट्रेंड को समझ कर अपने सिस्टम को सुदृढ़ करता है, तो दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियां यहां अपने प्लांट्स और रिसर्च सेंटर खोल सकती हैं। इससे रोजगार बढ़ेगा, तकनीक आएगी और भारत एक ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग हब के रूप में उभरेगा।
और सबसे बड़ी बात यह कि यह मौका स्थायी नहीं होगा। यह एक सीमित समय की खिड़की है, जिसे अगर हमने सही समय पर नहीं खोला, तो वियतनाम, इंडोनेशिया और बांग्लादेश जैसे देश इसे लपक सकते हैं। इसलिए यह केवल आर्थिक रणनीति नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण की एक बड़ी कड़ी बन सकती है। और इसके लिए नीति, योजना और इच्छाशक्ति—तीनों की आवश्यकता है।
अंततः यही कहा जा सकता है कि आज जो टीवी, फ्रिज, मोबाइल फोन सस्ते हो रहे हैं, वह केवल डिस्काउंट का खेल नहीं है। यह उस युद्ध का परिणाम है जो कहीं और लड़ा जा रहा है, लेकिन जीत भारत की झोली में गिर रही है। अमेरिका और चीन की टक्कर ने भारत को एक नया रास्ता दिखाया है—बाजार से आत्मनिर्भरता तक का। अब यह हम पर है कि हम इस रास्ते पर कितनी दूर और कितनी तेज़ी से चलते हैं।
Conclusion
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