Resilient: China कैसे ट्रंप की रणनीति वैश्विक शक्ति को बदल सकती है और जिनपिंग के देश पर पड़ेगा असर! 2025

कुछ बड़ा होने वाला है… कुछ ऐसा जिसकी भनक तक नहीं थी चीन को! शी जिनपिंग के देश की करोड़ों डॉलर की संपत्तियां अब खतरे में हैं। अमेरिका की एक चाल और China की पूरी अर्थव्यवस्था हिल सकती है। ठीक वैसे ही जैसे रूस की संपत्तियों पर कब्जा कर, अमेरिका ने उसे Global व्यापार से अलग-थलग कर दिया था। अब सवाल है—क्या चीन की बर्बादी की घड़ी आ गई है? क्या डोनाल्ड ट्रंप का अगला वार इतना घातक साबित होगा कि चीन की दशकों की मेहनत पर पानी फिर जाएगा? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

बीते कुछ महीनों से अमेरिका और चीन के बीच ट्रेड वॉर एक नए मोड़ पर आ चुका है। टैरिफ की टक्कर से शुरू हुई ये लड़ाई अब सीधे चीन की विदेशी संपत्तियों तक पहुंच गई है। खुद चीन के वरिष्ठ अर्थशास्त्री और पूर्व सेंट्रल बैंक सलाहकार यू योंगडिंग ने चेतावनी दी है कि, अमेरिका अब डॉलर को एक हथियार की तरह इस्तेमाल कर सकता है। अगर ये हुआ, तो चीन की स्थिति रूस से भी खराब हो सकती है।

साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, यू योंगडिंग ने बीजिंग में आयोजित एक फोरम में कहा कि अमेरिका की तरफ से डॉलर को राजनीतिक हथियार बनाए जाने की संभावना काफी बढ़ गई है। उन्होंने कहा कि अगर अमेरिका ने चीन की विदेशी संपत्तियों को निशाना बनाया, तो चीन को बहुत बड़ा नुकसान झेलना पड़ सकता है।

यू ने चेताया कि चीन को अब समय रहते अपनी संपत्तियों की रक्षा के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए। उन्होंने चीनी अधिकारियों को साफ शब्दों में समझाया कि उन्हें एक ऐसे आर्थिक युद्ध के लिए तैयार रहना चाहिए, जिसमें बम और बंदूकें नहीं होंगी, बल्कि डॉलर और बॉन्ड्स के जरिए हमला होगा। ये चेतावनी ऐसे समय में आई है जब चीन के पास करीब 10 ट्रिलियन डॉलर की विदेशी संपत्ति है।

इनमें से लगभग 3.2 ट्रिलियन डॉलर सिर्फ फॉरेक्स रिजर्व के रूप में हैं, और इसका बड़ा हिस्सा अमेरिकी डॉलर में रखा गया है। भारत के संदर्भ में बात करें तो यह रकम करीब 850 लाख करोड़ रुपये होती है। यानि अगर अमेरिका ने इन संपत्तियों को फ्रीज या जब्त करने की कोई रणनीति अपनाई, तो चीन को एक ही झटके में हजारों अरब का नुकसान हो सकता है।

यह चिंता यूं ही नहीं पैदा हुई। दरअसल, अमेरिका ने रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद रूस की करीब 300 बिलियन डॉलर की संपत्ति जब्त कर ली थी। अब experts को डर है कि अगर अमेरिका ने इसी तरह का कोई कदम उठाया, तो चीन को भी ऐसे ही आर्थिक झटके का सामना करना पड़ सकता है।

यू योंगडिंग का मानना है कि अमेरिका “मार-ए-लागो एकॉर्ड” जैसे किसी प्लान पर काम कर सकता है। ये एक हाइपोथेटिकल प्लान है जिसमें अमेरिका सभी विदेशी कर्जदारों के डॉलर में चल रहे कर्ज को 100 साल के बॉन्ड्स में बदल सकता है। आसान भाषा में कहें तो अमेरिका कर्ज वापस देने की समयसीमा को इतना लंबा खींच देगा कि उसका असर डिफॉल्ट जैसा हो जाएगा।

अगर ऐसा होता है तो चीन के लिए ये एक बड़ी आर्थिक त्रासदी हो सकती है। क्योंकि अमेरिका की इस नीति से न केवल चीन की विदेशी संपत्तियों की वैल्यू गिर जाएगी, बल्कि उसकी Global financial credit भी बुरी तरह से प्रभावित होगी।

अब सवाल है कि अमेरिका ऐसा करेगा क्यों? दरअसल, चीन और अमेरिका के बीच सिर्फ टैरिफ की लड़ाई नहीं है। ये एक रणनीतिक टकराव है जिसमें तकनीक, वित्त, सप्लाई चेन और ग्लोबल लीडरशिप शामिल है। और अमेरिका जानता है कि अगर चीन को वाकई कमजोर करना है, तो उसके फाइनेंशियल स्ट्रक्चर पर चोट करनी होगी।

इस पूरे घटनाक्रम का सबसे डरावना पहलू यह है कि चीन की अधिकांश विदेशी संपत्तियां अमेरिका में ही स्थित हैं। ट्रेजरी सिक्योरिटीज, डॉलर डिनॉमिनेटेड बॉन्ड्स और बैंक डिपॉजिट्स—ये सब कुछ अमेरिका की पकड़ में हैं। और अगर अमेरिका ने अचानक कोई एग्रेसिव पॉलिसी लागू कर दी, तो चीन का सारा फंड एक झटके में ब्लॉक हो सकता है।

यू योंगडिंग ने इसके लिए कुछ उपाय भी सुझाए हैं। उन्होंने कहा कि चीन को अब अपनी विदेशी संपत्तियों को रीबैलेंस करना चाहिए। अमेरिका पर निर्भरता कम करनी चाहिए। डॉलर में होल्डिंग घटाकर यूरो, येन, या अन्य मुद्राओं में विविधता लानी चाहिए।

इसके साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि चीन को अमेरिका की संभावित सख्ती से पहले ही, कुछ ऐसे फंड्स को शेल कंपनियों या तटस्थ देशों में ट्रांसफर कर देना चाहिए, जहां अमेरिकी प्रतिबंधों का असर न हो। ये वैसी ही रणनीति है जैसी कई देशों ने रूस पर प्रतिबंध लगने के बाद अपनाई थी।

अगर इतिहास को देखें, तो अमेरिका की आर्थिक नीतियां कभी भी सिर्फ अर्थशास्त्र तक सीमित नहीं रही हैं। वो हमेशा से अपनी भू-राजनीतिक रणनीति को साधने के लिए डॉलर का इस्तेमाल करता रहा है। यही वजह है कि जब रूस पर हमला हुआ, तो अमेरिका ने सबसे पहले उसकी संपत्तियों को निशाना बनाया, और उसे ग्लोबल फाइनेंशियल सिस्टम से बाहर कर दिया।

अब यही खतरा चीन पर मंडरा रहा है। अमेरिका पहले ही चीन की टेक कंपनियों, जैसे Huawei और TikTok पर शिकंजा कस चुका है। और अब अगर उसकी नजर चीन की विदेशी संपत्तियों पर पड़ गई, तो यह एक तरह की आर्थिक घेराबंदी होगी।

दूसरी ओर, चीन की चिंता ये भी है कि वह जितनी तेजी से ग्रोथ कर रहा है, उतनी ही तेजी से उसके दुश्मन भी बढ़ते जा रहे हैं। पश्चिमी देश चीन को एक रणनीतिक खतरे के रूप में देख रहे हैं, और ऐसे में अमेरिका को कोई भी मौका मिला तो वह चीन पर हमला करने में देर नहीं करेगा।

यही वजह है कि चीन अब जल्द से जल्द अमेरिकी ट्रेजरी से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा है। 2017 से अब तक चीन ने करीब 25% अमेरिकी बॉन्ड्स बेच दिए हैं। लेकिन ये काम इतना आसान नहीं है। क्योंकि अगर चीन अचानक सारे बॉन्ड्स बेचता है, तो उनकी वैल्यू गिर जाएगी और खुद चीन को ही नुकसान होगा।

यहां एक और डरावनी सच्चाई है—अगर अमेरिका ने चीन की संपत्तियों को फ्रीज कर दिया, तो इसका असर सिर्फ चीन पर नहीं, पूरी दुनिया पर पड़ेगा। ग्लोबल फाइनेंशियल मार्केट में भारी उथल-पुथल होगी। डॉलर की साख को भी धक्का लगेगा। और सबसे बड़ी बात, कई छोटे देशों की विदेशी संपत्तियां भी खतरे में पड़ जाएंगी जो डॉलर में जमा हैं।

इसलिए यू योंगडिंग जैसे Expert चेतावनी दे रहे हैं कि यह सिर्फ एक देश की लड़ाई नहीं, बल्कि पूरे Global economy के लिए खतरे की घंटी है। उन्होंने कहा कि चीन को अब केवल अमेरिका पर जवाबी टैरिफ लगाने से आगे बढ़कर, एक ठोस फाइनेंशियल डिफेंस स्ट्रेटेजी बनानी चाहिए।

इस रणनीति में सबसे जरूरी है—डॉलर पर निर्भरता कम करना। चीन को अपनी ट्रेड पॉलिसी, Investment मॉडल और रिजर्व स्ट्रक्चर में बदलाव लाकर नए विकल्प तलाशने होंगे।

दूसरा जरूरी कदम यह होगा कि चीन को अपने अंतरराष्ट्रीय व्यापार में युआन को बढ़ावा देना चाहिए। जैसे भारत, रूस और ईरान अब डॉलर की बजाय अपनी मुद्रा में व्यापार कर रहे हैं, वैसे ही चीन को भी युआन आधारित ट्रेड को प्राथमिकता देनी होगी।

तीसरा, चीन को अब अमेरिका के खिलाफ डिप्लोमैटिक फ्रंट खोलना होगा। उसे यूरोपीय यूनियन, अफ्रीकी देश और ASEAN देशों को साथ लेकर अमेरिका की नीतियों के खिलाफ कूटनीतिक दबाव बनाना होगा।

कुल मिलाकर, चीन अब एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां उसे तय करना है कि वह अमेरिका के दबाव में झुकेगा या एक नई आर्थिक व्यवस्था की नींव रखेगा। ट्रंप की चाल में फंसा चीन क्या इस बार अपनी रणनीतिक समझदारी से बाहर निकल पाएगा, या फिर इतिहास खुद को दोहराएगा और चीन भी रूस की तरह अमेरिका की आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक का शिकार बन जाएगा?

अभी यह सब भविष्य के गर्भ में छिपा है। लेकिन इतना तय है कि अगर अमेरिका ने डॉलर को वाकई हथियार बना लिया, तो न केवल चीन, बल्कि पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था एक नई अनिश्चितता में प्रवेश कर जाएगी। और यही असली खतरा है, जिससे यू योंगडिंग जैसे अर्थशास्त्री पूरी दुनिया को चेतावनी दे रहे हैं।

Conclusion

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