नमस्कार दोस्तों, क्या आप सोच सकते हैं एक ऐसा भविष्य जहां रविवार भी ऑफिस में बिताने के लिए मजबूर होना पड़े? जहां परिवार के साथ खुशियों के पल, दोस्तों के साथ बैठकर बातें करना, और खुद के लिए सुकून के क्षण—सब कुछ एक भारी कामकाजी शेड्यूल में खो जाए?
हाल ही में लार्सन एंड टुब्रो (L&T) के चेयरमैन एस एन सुब्रह्मण्यन ने एक बयान दिया जिसने पूरे देश को चौंका दिया। उन्होंने अपने कर्मचारियों को हफ्ते में 90 working hours करने की सलाह दी। यही नहीं, उन्होंने कहा, “घर पर रहकर आखिर कितनी देर तक अपनी पत्नी को निहारोगे?” उनका यह बयान सुनते ही सोशल मीडिया पर हंगामा मच गया।
अब सवाल यह उठता है—क्या 90 working hours करना वाकई सफलता का रहस्य है? या फिर यह एक अमानवीय सोच है जो कर्मचारियों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को दरकिनार कर शोषण को बढ़ावा देती है? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
एस एन सुब्रह्मण्यन ने कर्मचारियों को लंबे working hours करने की सलाह क्यों दी, और इसके पीछे उनके तर्क क्या हैं?
एस एन सुब्रह्मण्यन ने अपने कर्मचारियों को संबोधित करते हुए कहा कि अगर उन्हें व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन में सफलता पानी है, तो उन्हें लंबे घंटों तक काम करने की आदत डालनी होगी। उन्होंने खुद का उदाहरण देते हुए कहा कि वह खुद संडे को भी ऑफिस आते हैं, और अगर संभव हुआ तो अपने कर्मचारियों को भी रविवार को काम पर बुलाना चाहेंगे।
उनका मानना है कि ज़्यादा working hours करना ही किसी कंपनी को सफलता के शिखर तक ले जा सकता है। उनके मुताबिक, समय की बर्बादी से बचने के लिए काम ही एकमात्र साधन है। उन्होंने कहा, “आखिर घर पर बैठकर कितनी देर अपनी पत्नी को निहारोगे?” हालांकि, उनका यह बयान प्रेरणा कम और विवाद ज्यादा पैदा कर रहा है। लोग सवाल उठा रहे हैं कि क्या इतने लंबे घंटों तक काम करना वास्तव में जरूरी है, या सिर्फ कर्मचारियों पर अनावश्यक दबाव बनाने का एक तरीका है?
यह पहली बार नहीं है जब किसी बड़े उद्योगपति ने अत्यधिक वर्किंग ऑवर्स की वकालत की हो। इससे पहले इंफोसिस के को-फाउंडर एन आर नारायण मूर्ति ने भी इसी तरह का बयान दिया था। उन्होंने कहा था कि भारतीय युवाओं को सप्ताह में कम से कम 70 working hours करना चाहिए, ताकि देश की प्रगति और आर्थिक विकास को गति दी जा सके। हालांकि उनके इस बयान की भी आलोचना हुई थी, और इसे कर्मचारियों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक बताया गया था।
अब जब एल एंड टी के चेयरमैन ने 90 working hours करने का सुझाव दिया है, तो यह बहस और तेज हो गई है। यह प्रश्न और महत्वपूर्ण हो गया है—क्या मेहनत की पराकाष्ठा ही सफलता की गारंटी है, या फिर यह सोच कर्मचारियों के लिए हानिकारक साबित हो सकती है?
काम के घंटों को लेकर चीनी वर्क कल्चर का उदाहरण क्यों दिया जाता है, और इसकी क्या सीमाएं हैं?
सुब्रह्मण्यन ने अपने बयान को सही ठहराने के लिए चीनी वर्क कल्चर का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि एक चीनी व्यक्ति ने दावा किया था कि चीन, अमेरिका से इसलिए आगे निकल सकता है क्योंकि वहां के लोग 90 घंटे प्रति सप्ताह काम करते हैं। यह तर्क superficial और भ्रामक लगता है। चीन का “996 वर्क कल्चर” (सुबह 9 बजे से रात 9 बजे तक, सप्ताह में 6 दिन) लंबे समय से विवादों में रहा है। कई रिपोर्ट्स में सामने आया है कि वहां कर्मचारियों को अत्यधिक तनाव और ओवरवर्क के कारण बर्नआउट, मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं और यहां तक कि मौत तक का सामना करना पड़ा है।
दूसरी ओर, अमेरिका, जर्मनी और नीदरलैंड जैसे विकसित देशों में वर्किंग आवर्स सीमित होते जा रहे हैं। वहाँ पर 40 से 50 घंटे के कार्य सप्ताह के बावजूद कंपनियां World level पर Competitive बनी हुई हैं। तो सवाल उठता है—क्या भारत को विकास के लिए चीन जैसा मॉडल अपनाना चाहिए, या फिर मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए संतुलन बनाए रखना चाहिए?
एस एन सुब्रह्मण्यन के बयान पर सोशल मीडिया और सार्वजनिक प्रतिक्रिया कैसी रही?
जैसे ही सुब्रह्मण्यन का यह बयान सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, आलोचनाओं की बाढ़ आ गई। ट्विटर, रेडिट और लिंक्डइन पर लोगों ने इस बयान को कर्मचारियों के शोषण की मानसिकता करार दिया। कई यूज़र्स ने लिखा कि 90 working hours करना न केवल अव्यावहारिक है बल्कि, मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी खतरनाक है। वहीं, कुछ लोगों ने यह भी तर्क दिया कि इससे कर्मचारियों की उत्पादकता में गिरावट आएगी। लगातार लंबे समय तक काम करने से व्यक्ति मानसिक रूप से थक जाता है, जिससे उसकी क्रिएटिविटी और कार्यक्षमता घट जाती है। Experts का कहना है कि अत्यधिक काम करने से ”Burnout syndrome’ हो सकता है, जिसमें व्यक्ति Mental stress, anxiety और Depression का शिकार हो जाता है।
लंबे वर्किंग ऑवर्स का, Work-Life Balance और मानसिक स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है?
आज के आधुनिक कॉर्पोरेट वर्ल्ड में ‘Work-Life Balance’ का महत्व तेजी से बढ़ रहा है। कई कंपनियां अपने कर्मचारियों को सीमित घंटों में अधिक उत्पादकता और बेहतर संतुलन के लिए प्रेरित कर रही हैं। 90 working hours करने की मानसिकता न केवल मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकती है, बल्कि यह कर्मचारियों के सामाजिक जीवन और व्यक्तिगत विकास के अवसरों को भी समाप्त कर सकती है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, अत्यधिक काम के कारण रिश्तों में तनाव, बच्चों की परवरिश पर असर और मानसिक शांति की कमी जैसे गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
लंबे वर्किंग ऑवर्स की वकालत के संदर्भ में नैतिकता और कॉर्पोरेट जिम्मेदारी क्या होनी चाहिए?
एक जिम्मेदार कॉर्पोरेट नेतृत्व का कर्तव्य है कि वह अपने कर्मचारियों के स्वास्थ्य और व्यक्तिगत जीवन का सम्मान करे। जब कोई उद्योगपति अपने कर्मचारियों से 90 working hours करने की अपेक्षा करता है, तो यह सवाल उठता है—क्या यह नैतिक रूप से सही है? स्मार्ट वर्क का कॉन्सेप्ट आज के दौर में अधिक Relevant है। यह बताता है कि कम घंटों में सही रणनीति और बेहतर फोकस के साथ काम करना ज़्यादा प्रभावी हो सकता है। World level पर कई सफल कंपनियां सीमित कार्य घंटों के बावजूद बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं। स्वीडन, जर्मनी, और नीदरलैंड जैसे देशों ने काम के घंटों को कम करते हुए उत्पादकता बढ़ाने के नए मॉडल बनाए हैं।
Conclusion
तो दोस्तों, सवाल यह है कि क्या 90 working hours करने से वाकई सफलता सुनिश्चित होगी? क्या यह एक प्रेरणादायक सोच है, या फिर एक अमानवीय शोषण का चेहरा? सच्चाई यह है कि सफलता केवल काम के घंटों पर आधारित नहीं होती, बल्कि बेहतर टाइम मैनेजमेंट, प्रोडक्टिविटी और मानसिक संतुलन पर निर्भर करती है। इसलिए, कंपनियों को यह समझने की जरूरत है कि एक खुशहाल, स्वस्थ और प्रेरित कर्मचारी ही किसी भी संगठन की सफलता की असली कुंजी होता है।
अब फैसला आपका है—क्या 90 working hours करना सही है? क्या इसे प्रेरणा मानना चाहिए या यह कर्मचारी शोषण है? अपनी राय कमेंट सेक्शन में जरूर साझा करें। अगर हमारे आर्टिकल ने आपको कुछ नया सिखाया हो, तो इसे शेयर करना न भूलें, ताकि यह महत्वपूर्ण जानकारी और लोगों तक पहुँच सके। आपके सुझाव और सवाल हमारे लिए बेहद अहम हैं, इसलिए उन्हें कमेंट सेक्शन में जरूर साझा करें। आपकी प्रतिक्रियाएं हमें बेहतर बनाने में मदद करती हैं।
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