सोचिए, अगर किसी ने आपसे वादा किया हो कि वो आपकी सबसे मुश्किल घड़ी में आपके साथ खड़ा रहेगा, और जब वो घड़ी आए तो वही इंसान आंखें फेर ले? अब ज़रा इस वादे को एक अस्पताल के साथ जोड़िए… एक ऐसा अस्पताल जो देश की राजधानी दिल्ली में सरकार की जमीन पर बना, और वादा किया गया कि वहां गरीबों का मुफ्त इलाज होगा।
लेकिन अब सवाल ये उठ रहा है – क्या उस वादे को निभाया गया? या फिर 1 रुपये महीने में मिली सरकारी ज़मीन पर किसी का मुनाफा खड़ा हो गया और जरूरतमंद पीछे छूट गए? सुप्रीम कोर्ट ने खुद इस रहस्य से पर्दा उठाने का फैसला किया है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
दिल्ली के मशहूर Apollo Hospital को जब सरकार ने जमीन दी थी, तो इसके पीछे एक बड़ा मकसद था – इस अस्पताल में हर तबके का इलाज हो सके, खासकर उन लोगों का जिनके पास इलाज के पैसे नहीं होते। शर्त रखी गई थी कि अस्पताल में 40% ओपीडी मरीजों को निःशुल्क सेवाएं मिलेंगी, और 600 में से एक तिहाई बेड गरीब मरीजों के लिए आरक्षित होंगे। और इसके बदले सरकार ने क्या लिया? महज़ एक रुपये महीना।
अब यही Apollo Hospital सुप्रीम कोर्ट की निगाहों में आ चुका है। कोर्ट ने पूछा है – क्या वास्तव में गरीबों का इलाज हुआ? क्या अस्पताल ने पिछले पांच सालों में अपना वादा निभाया? या फिर ये सरकारी जमीन निजी फायदे का ज़रिया बन गई? सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई कर रहा है इंद्रप्रस्थ मेडिकल कॉर्पोरेशन लिमिटेड की अपील पर, जो Apollo Hospital को चलाती है। ये अपील दिल्ली हाईकोर्ट के एक पुराने आदेश को चुनौती देती है। हाईकोर्ट ने 2009 में जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा था कि अस्पताल गरीब मरीजों को इलाज नहीं दे रहा, जैसा कि वादा किया गया था।
इस याचिका को दाखिल किया था अखिल भारतीय वकील संघ ने। उनका आरोप था कि Apollo Hospital सिर्फ अमीरों के लिए खुला है। गरीब मरीज, जिन्हें इलाज की सबसे ज्यादा जरूरत है, उन्हें या तो लौटा दिया जाता है या इलाज के लिए बड़ी रकम मांगी जाती है। ऐसे में सवाल उठता है – क्या ये अस्पताल वाकई “जनसेवा” के लिए बना था या “व्यवसाय” के लिए?
अब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार – दोनों को निर्देश दिए हैं कि वे मिलकर एक संयुक्त निरीक्षण टीम बनाएं। इस टीम को 4 हफ्तों में यह रिपोर्ट देनी होगी कि अस्पताल ने कितने गरीबों का इलाज किया, कितने बेड उन्हें दिए गए, और क्या ओपीडी में 40% मरीजों को निःशुल्क सेवाएं मिलीं या नहीं?
कोर्ट ने साफ कहा है – अगर रिपोर्ट में सामने आता है कि अस्पताल ने अपने वादे नहीं निभाए, तो हम इस पर ऊपरी स्तर पर चर्चा करेंगे। और जरूरत पड़ी, तो हम एम्स को कहेंगे कि वह इस अस्पताल को चलाए। यानी कोर्ट इस मामले में कोई समझौता नहीं करने जा रही।
अब ज़रा इस करार की शुरुआत पर चलते हैं। साल था 1988। अप्रैल का महीना था जब अपोलो समूह और भारत सरकार के बीच एक समझौता हुआ। दिल्ली के उपराज्यपाल के ज़रिए, राष्ट्रपति ने एक 30 साल की लीज डीड साइन की। इसके तहत अपोलो ग्रुप को दिल्ली के सरिता विहार इलाके में 15 एकड़ जमीन दी गई।
यह जमीन एक मल्टी-स्पेशलिटी अस्पताल के निर्माण के लिए दी गई थी। शर्त थी – 600 बेड वाले इस अस्पताल में से एक तिहाई बेड गरीबों के लिए आरक्षित होंगे, और ओपीडी में आने वाले 40% मरीजों को मुफ्त जांच सुविधाएं मिलेंगी। यह करार सिर्फ कागज़ी नहीं था, बल्कि सरकारी नीति का हिस्सा था, जिसे एक शपथ की तरह माना जाना था।
अब सवाल है – क्या 1988 में हुआ यह करार एक मिशन था, या एक मुनाफे का जरिया बन गया? इतने वर्षों बाद जब कोर्ट को खुद हस्तक्षेप करना पड़ा, तो निश्चित रूप से कुछ तो गड़बड़ रही होगी। वरना एक ऐसा अस्पताल, जिसे सरकार ने इतने सस्ते में जमीन दी, वो आज शक के घेरे में क्यों आता?
सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ मौखिक आदेश नहीं दिया। उसने साफ कहा है कि एक टीम बनाई जाए जो अस्पताल के रिकॉर्ड्स की जांच करे। खासकर ये देखा जाए कि पिछले पांच सालों में कितने मरीजों को राज्य सरकार की सिफारिश पर इलाज दिया गया। यानी कोई भी दावा सिर्फ कहने से नहीं चलेगा – अब सबकुछ डॉक्यूमेंट्स से साबित करना होगा।
कोर्ट ने इस टीम को निर्देश दिया है कि वो अस्पताल जाकर निरीक्षण करे, बेड्स की गिनती करे, ओपीडी का रजिस्टर चेक करे, और हर वो डिटेल निकाले जिससे सच्चाई सामने आए। यह आदेश सिर्फ एक अस्पताल की जांच नहीं है – यह उस पूरे सिस्टम पर सवाल है जिसमें गरीबों के नाम पर वादे होते हैं, लेकिन हकीकत में फायदा किसी और को होता है।
इस मामले में अब पूरी दिल्ली की नजरें सुप्रीम कोर्ट पर हैं। अगर जांच में ये साबित होता है कि अपोलो ने शर्तों का पालन नहीं किया, तो उसके खिलाफ क्या कार्रवाई होगी? क्या उसकी लीज कैंसिल होगी? क्या सरकार उस जमीन को वापस लेगी? या फिर कोई और संस्था, जैसे एम्स, उस अस्पताल का संचालन संभालेगी?
एक बड़ा सवाल यह भी है कि इतने सालों तक इस वादे पर निगरानी क्यों नहीं रखी गई? क्या सरकार को ये नहीं देखना चाहिए था कि जिस जमीन पर अस्पताल बना है, वहां तय शर्तों का पालन हो रहा है या नहीं? अगर अब कोर्ट को यह जिम्मेदारी लेनी पड़ रही है, तो ये कहीं न कहीं प्रशासन की भी विफलता को दर्शाता है।
इस घटना ने कई और सवाल खड़े कर दिए हैं – क्या बाकी प्राइवेट अस्पतालों को भी इसी तरह की रियायतें दी गई हैं? क्या उनके लिए भी शर्तें तय की गई थीं? और क्या उन्होंने उन शर्तों का पालन किया है? Apollo Hospital का यह मामला एक मिसाल बन सकता है – एक ऐसा उदाहरण जो बाकी निजी अस्पतालों के लिए चेतावनी हो।
दरअसल, भारत में हेल्थकेयर को लेकर दो धाराएं चलती हैं – एक तरफ सरकारी अस्पताल हैं, जहां संसाधनों की कमी है, और दूसरी तरफ प्राइवेट अस्पताल, जहां इलाज महंगा है। ऐसे में जब कोई प्राइवेट अस्पताल सरकारी जमीन पर बनता है, तो उसकी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। उसे केवल बिज़नेस नहीं करना होता, बल्कि एक सामाजिक जिम्मेदारी भी निभानी होती है।
अगर इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की जांच में गड़बड़ सामने आती है, तो यह पूरे देश में एक बड़ी बहस को जन्म देगी – क्या निजी अस्पतालों को रियायत देने की नीति सही है? क्या ऐसे करारों पर निगरानी का कोई पुख्ता तंत्र होना चाहिए?सुप्रीम कोर्ट का आदेश एक नए युग की शुरुआत हो सकता है – एक ऐसा युग जहां हेल्थकेयर सेक्टर में पारदर्शिता हो, जवाबदेही हो, और सबसे जरूरी – गरीबों के लिए वास्तविक सुविधाएं हों, न कि केवल कागज़ी वादे।
Apollo Hospital जैसा नामचीन संस्थान अगर जांच के घेरे में आता है, तो इसका असर बाकी संस्थानों पर भी पड़ेगा। अब प्राइवेट अस्पतालों को यह समझना होगा कि अगर उन्होंने किसी सार्वजनिक सुविधा के बदले कोई रियायत ली है, तो उन्हें उसकी पूरी जवाबदेही निभानी होगी। वहीं, आम जनता के लिए यह आदेश एक उम्मीद की किरण बनकर आया है। अब वे जान सकेंगे कि जिन संस्थानों को उनकी सेवा के लिए खड़ा किया गया था, वो वाकई सेवा कर रहे हैं या नहीं। यह जनहित याचिका सिर्फ एक कानूनी प्रक्रिया नहीं थी, बल्कि देश के उस वर्ग की आवाज थी, जिसे अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है।
इस पूरे प्रकरण में अब जो सबसे जरूरी चीज है, वो है समय पर रिपोर्ट आना। सुप्रीम कोर्ट ने जो 4 हफ्ते का समय दिया है, वह एक निर्णायक मोड़ हो सकता है। अगर रिपोर्ट में सबकुछ सही पाया गया, तो अपोलो को क्लीन चिट मिल सकती है। लेकिन अगर कुछ भी संदेहास्पद मिला, तो आने वाले दिन उसके लिए काफी कठिन हो सकते हैं।
इस केस की गूंज अब देश के अन्य हिस्सों में भी सुनाई दे रही है। कई अन्य राज्यों की सरकारें अब अपने-अपने प्राइवेट अस्पतालों के साथ हुए करारों की समीक्षा कर रही हैं। और यह अच्छी बात है – क्योंकि पब्लिक रिसोर्सेस का उपयोग, पब्लिक के हित में ही होना चाहिए। तो अब देश देख रहा है – क्या वाकई Apollo Hospital ने उस 1 रुपये की कीमत चुकाई जो उसे जमीन देने के बदले मांगी गई थी? क्या उसने सेवा का धर्म निभाया, या व्यापार की भाषा में काम किया?
इस सवाल का जवाब आने वाले दिनों में सुप्रीम कोर्ट की रिपोर्ट से मिलेगा। लेकिन एक बात साफ है – अगर नियमों का उल्लंघन हुआ, तो अब उसे नज़रअंदाज नहीं किया जाएगा। और शायद यही भारतीय न्याय व्यवस्था की सबसे बड़ी ताकत है – देर से सही, पर न्याय जरूर होता है।
Conclusion:-
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