Inspiring: Mohan Singh Oberoi: जूता फैक्ट्री से शुरुआत, अब मिनटों में कमा रहे करोड़ों – मेहनत की मिसाल! 2025

कल्पना कीजिए एक ऐसे इंसान की, जिसकी जेब में कभी 50 रुपए भी मुश्किल से होते थे, लेकिन आज उसकी कंपनी हर मिनट करोड़ों रुपए का कारोबार कर रही है। एक ऐसा इंसान जो कभी जूता फैक्ट्री में काम करता था, लेकिन आज उसके नाम से देश-दुनिया में लक्ज़री और क्लास की पहचान जुड़ी है।

हम बात कर रहे हैं राय बहादुर Mohan Singh Oberoi की, जिन्होंने भारत की हॉस्पिटैलिटी इंडस्ट्री को न केवल नई पहचान दी, बल्कि एक ऐसा बिजनेस एम्पायर खड़ा कर दिया जिसकी चमक भारत से लेकर विदेशों तक फैली हुई है। ये कहानी सिर्फ पैसे कमाने की नहीं है, ये कहानी है संघर्ष, समर्पण और साहस से सफलता तक की उस यात्रा की जो हर भारतीय को प्रेरणा देती है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

राय बहादुर मोहन सिंह ओबेरॉय का जन्म 15 अगस्त 1898 को झेलम में हुआ था, जो आज पाकिस्तान का हिस्सा है। एक सामान्य परिवार से आने वाले ओबेरॉय के जीवन की शुरुआत काफी कठिनाइयों से भरी थी। जब वे बहुत छोटे थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया। परिवार की जिम्मेदारी अचानक उनके कंधों पर आ गई। गुजारे के लिए उन्होंने अपने चाचा की जूता फैक्ट्री में काम करना शुरू कर दिया। उस वक्त उनके पास न कोई विशेष डिग्री थी, न कोई बड़ा सपना – बस परिवार को दो वक़्त की रोटी देना ही उनका एकमात्र लक्ष्य था। लेकिन यही साधारण शुरुआत उन्हें असाधारण मंज़िल की ओर ले जा रही थी, जिसका उन्हें उस वक्त अंदाजा भी नहीं था।

लेकिन किस्मत को कुछ और मंज़ूर था। जब भारत-पाकिस्तान का विभाजन हुआ, तो दंगों और हिंसा के चलते उन्हें सब कुछ छोड़कर भारत आना पड़ा। यह उनके लिए एक और बड़ा झटका था – सारी पूंजी, संपर्क और अनुभव पीछे छूट गया था। लेकिन जहां अधिकतर लोग टूट जाते हैं, वहीं मोहन सिंह ओबेरॉय ने एक नई शुरुआत की ठानी। उन्होंने शिमला के एक होटल – सेसिल होटल – में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी कर ली। इस काम के लिए उन्हें मात्र 50 रुपए की मासिक तनख्वाह मिलती थी। यह नौकरी छोटी ज़रूर थी, लेकिन उन्होंने इसे अपने जुनून और समर्पण से इतना बड़ा बना दिया कि यहीं से उनके करियर की असली नींव रखी गई।

सेसिल होटल में काम करते समय ओबेरॉय की मेहनत, ईमानदारी और व्यवहार ने ब्रिटिश मैनेजर को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने उन्हें होटल के अकाउंट्स की जिम्मेदारी दे दी। यहीं से मोहन सिंह को हॉस्पिटैलिटी इंडस्ट्री की बारीकियां समझ आने लगीं। वह हर चीज़ को ध्यान से देखते, सीखते और अपने भीतर उतारते। उन्हें होटल चलाने की प्रक्रिया, ग्राहकों से व्यवहार, स्टाफ Management और हर उस छोटी-बड़ी चीज़ की समझ होने लगी, जो एक होटल को सफल बनाती है। उन्होंने महसूस किया कि यह इंडस्ट्री कितनी जटिल लेकिन रोमांचक है, और अगर सही तरीके से सीखा जाए, तो इसमें न केवल करियर बल्कि एक शानदार बिजनेस भी खड़ा किया जा सकता है।

कुछ समय बाद, सेसिल होटल के ही मैनेजर ने एक छोटा-सा होटल खरीदा और उसकी जिम्मेदारी मोहन सिंह ओबेरॉय को सौंप दी। यह एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ। उन्होंने इस होटल को पूरी लगन और समझदारी से चलाया। फिर साल 1934 में उन्होंने इस होटल को खुद खरीदने का फैसला किया। इसके लिए उन्होंने अपनी सारी जमा पूंजी लगा दी, यहां तक कि अपनी पत्नी के गहने तक बेच दिए। यह होटल था ‘क्लार्क्स होटल’ – जो अब भारत की हॉस्पिटैलिटी इंडस्ट्री के इतिहास में एक ऐतिहासिक स्थान रखता है। इस एक निर्णय ने न केवल उनका जीवन बदल दिया बल्कि भारत के होटल इंडस्ट्री का भविष्य भी बदल दिया।

क्लार्क्स होटल से जो कमाई हुई, उससे ओबेरॉय ने अपने ऊपर चढ़ा सारा कर्ज़ चुकाया और अगला बड़ा कदम उठाया – कोलकाता में एक बड़ा होटल खरीदा। लेकिन उन्होंने यहीं रुकने का नाम नहीं लिया। उन्होंने एसोसिएटेड होटल्स ऑफ इंडिया के शेयरों में Investment करना शुरू किया। यह वो होटल चेन थी जिसके पास शिमला, दिल्ली, लाहौर, मरी, रावलपिंडी और पेशावर में कई प्रतिष्ठित होटल्स थे। अपने धैर्य और दूरदृष्टि से ओबेरॉय ने धीरे-धीरे एसोसिएटेड होटल्स ऑफ इंडिया पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया, और एक विशाल होटल साम्राज्य के मालिक बन गए। यह Investment और विस्तार की रणनीति ने ओबेरॉय को उस ऊंचाई पर पहुंचा दिया, जहां से उन्होंने भारत में हॉस्पिटैलिटी के भविष्य को आकार देना शुरू कर दिया।

मोहन सिंह ओबेरॉय की सोच सामान्य बिजनेस माइंड से कहीं आगे थी। वे जानते थे कि अगर भारत को हॉस्पिटैलिटी के क्षेत्र में Global पहचान दिलानी है, तो भारतीय होटलों को अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरना होगा। इसी सोच के साथ उन्होंने साल 1965 में दिल्ली में भारत का पहला मॉडर्न होटल ‘द ओबेरॉय इंटरकॉन्टिनेंटल’ शुरू किया। यह होटल सिर्फ भवन नहीं था, यह भारत के लग्जरी होटल सेक्टर की दिशा बदलने वाला प्रोजेक्ट था। उन्होंने न केवल स्थापत्य में आधुनिकता लाई, बल्कि सेवा के स्तर को भी अंतरराष्ट्रीय बना दिया। यह होटल विदेशी पर्यटकों और देश के उच्च वर्ग के बीच तेजी से लोकप्रिय हुआ और ओबेरॉय ब्रांड को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया।

इस सफलता के बाद 1973 में मुंबई में उन्होंने 35 मंज़िलों वाला ओबेरॉय शेरेटन शुरू किया – उस दौर का सबसे ऊंचा होटल। इसके निर्माण और संचालन में उन्होंने अंतरराष्ट्रीय experts को जोड़ा और भारत में हॉस्पिटैलिटी की नई परिभाषा दी। उन्होंने एक के बाद एक भारत में ही नहीं, बल्कि चीन, UAE, UK, दक्षिण अफ्रीका जैसे कई देशों में ओबेरॉय ग्रुप के होटल्स शुरू किए। यह वह समय था जब भारतीय ब्रांड्स global platform पर गिने-चुने थे, और ओबेरॉय ग्रुप उनमें सबसे आगे निकल गया। उनका विजन स्पष्ट था – भारत को global platform पर प्रतिष्ठा दिलानी है, और इसके लिए उन्होंने हर मुमकिन प्रयास किया।

उनकी कंपनियां EIH लिमिटेड (East India Hotels Limited) और EIH (Associated Hotels Ltd) आज भारतीय शेयर बाज़ार में लिस्टेड हैं। ये कंपनियां न केवल भारत बल्कि दुनिया के कई देशों में होटल्स, रिसॉर्ट्स और लक्ज़री क्रूज़ का संचालन करती हैं। ‘ओबेरॉय होटल्स एंड रिसॉर्ट्स’ और ‘ट्राइडेंट होटल्स’ नाम से ब्रांड चलाने वाले इस ग्रुप के पास मिस्र में दो शानदार क्रूज़ भी हैं। भारत, इंडोनेशिया, UAE, मॉरिशस, सऊदी अरब, इजिप्ट, मोरक्को जैसे देशों में इस ग्रुप के होटल्स हैं, जो भारतीय हॉस्पिटैलिटी की शान हैं। उनका विस्तार और संचालन इस बात का प्रमाण है कि भारतीय उद्यमिता किस तरह दुनिया में छा सकती है।

मोहन सिंह ओबेरॉय की उपलब्धियों को केवल व्यवसायिक सफलता तक सीमित नहीं किया जा सकता। उन्हें भारत सरकार द्वारा ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया – जो यह दर्शाता है कि उनका योगदान सिर्फ एक उद्यमी के तौर पर नहीं, बल्कि एक राष्ट्र निर्माता के रूप में भी सराहनीय था। उन्होंने न केवल भारत को ग्लोबल हॉस्पिटैलिटी मैप पर जगह दिलाई, बल्कि हजारों युवाओं को रोज़गार भी दिया, देश के पर्यटन को बढ़ावा दिया और ‘अतिथि देवो भव’ की भारतीय परंपरा को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। उन्होंने साबित कर दिया कि सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है और अगर उसे ईमानदारी और समर्पण के साथ निभाया जाए, तो सफलता निश्चित है।

साल 2002 में जब मोहन सिंह ओबेरॉय का निधन हुआ, तब उनकी उम्र 103 साल थी। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि सीमित संसाधनों और कठिन परिस्थितियों के बावजूद अगर इच्छा शक्ति मजबूत हो, तो कोई भी सपना साकार किया जा सकता है। आज उनका बेटा और पोता इस बिजनेस को आगे बढ़ा रहे हैं और ओबेरॉय ग्रुप लगातार नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। यह दिखाता है कि जब एक परिवार की नींव मजबूत हो और नेतृत्व में दूरदृष्टि हो, तो विरासत को आने वाली पीढ़ियां और भी ऊंचाइयों तक ले जा सकती हैं।

यह कहानी हम सभी के लिए एक सबक है कि कोई भी शुरुआत छोटी नहीं होती। एक जूता फैक्ट्री में काम करने वाला इंसान, जिसने महज़ 50 रुपए की सैलरी पर काम शुरू किया, वो अगर मेहनत, ईमानदारी और दूरदृष्टि से आगे बढ़े, तो दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित कंपनियों में अपना नाम दर्ज करवा सकता है। मोहन सिंह ओबेरॉय ने यह कर दिखाया और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणास्त्रोत बन गए। उनकी कहानी हमें यह याद दिलाती है कि सपनों की कोई सीमा नहीं होती, बस उन्हें साकार करने का हौसला होना चाहिए।

Conclusion

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