Savitri Devi Dalmiya: काशी की साध्वी जिनकी सुई ने रच दिया सशक्तिकरण का इतिहास, हर महिला के लिए बनी मिसाल! 2025

काशी की गलियों में एक लड़की जन्मी थी। ना कोई शाही ठाठ था, ना किसी खास खानदान की शान, पर उस लड़की की आंखों में एक चमक थी — ऐसी चमक जो वक्त की धूल को चीरकर अपनी रौशनी बिखेरने वाली थी। उसका कोई राजसी सिंहासन नहीं था, बस एक साधारण सी सुई और कुछ कपड़े थे। लेकिन उसने उसी सुई से समाज की सोच में टांके लगाए, पुराने विचारों को सीला और एक नया परिधान गढ़ा — नारी सशक्तिकरण का।

ये कोई काल्पनिक कथा नहीं, बल्कि एक सच्ची कहानी है सावित्री देवी डालमिया की, जिन्हें लोग प्यार से साबो बुलाते थे। उनकी ज़िंदगी, उनके विचार, और उनका योगदान, आज भी बनारस की हवा में गूंजता है। यह कहानी है एक ऐसी महिला की, जिसने ना सिर्फ अपने लिए, बल्कि हजारों महिलाओं के लिए रास्ता बनाया, जो सदियों तक चलने लायक है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

Savitri Devi Dalmiya का जन्म दिसंबर 1934 में काशी के कचौरी गली में पन्नालाल जी कनोडिया के घर हुआ था। उनका पालन-पोषण बनारस के उसी माहौल में हुआ जहाँ हर सुबह मंदिर की घंटियों की गूंज, और गंगा के आरती की आवाज़ आत्मा को छू जाया करती थी।

लेकिन ये शहर जितना आध्यात्मिक था, उतना ही पितृसत्तात्मक भी था। एक लड़की के लिए सीमाएँ थीं, सपनों पर पहरे थे, लेकिन साबो जी ने इन बंद दरवाज़ों के सामने हार नहीं मानी। वे छोटी उम्र से ही जान गई थीं कि अगर कुछ बदलना है, तो खुद से शुरुआत करनी होगी। उनके माता-पिता ने उन्हें अच्छे संस्कार दिए, लेकिन समाज में जो सीमाएं थीं, उन्हें तोड़ना तो सावित्री को खुद ही था।

बचपन से ही उनका झुकाव वस्त्र शिल्प की ओर था। बनारसी कपड़ों की महीन बनावट, कढ़ाई की बारीकी और रंगों की जादूगरी उन्हें मंत्रमुग्ध कर देती थी। वे जब भी किसी वस्त्र को छूतीं, तो ऐसा लगता जैसे उसकी आत्मा को महसूस कर रही हों। उन्होंने कपड़े सिलना सीखा, सुई-धागे से नए-नए डिज़ाइन बनाए और धीरे-धीरे अपनी कला में दक्ष होती गईं। लेकिन उनके लिए वस्त्र शिल्प केवल एक शौक नहीं था, यह एक साधना थी, एक अभिव्यक्ति थी, एक रास्ता था दुनिया को अपनी पहचान बताने का। इस कला के माध्यम से उन्होंने महिलाओं के लिए आत्मनिर्भरता का रास्ता देखा और उसी दिशा में अपने जीवन को मोड़ दिया।

पर उनकी दुनिया केवल धागों और कपड़ों तक सीमित नहीं थी। किताबें उनकी सबसे अच्छी दोस्त थीं। जब भी उन्हें समय मिलता, वे पढ़ाई में डूब जातीं। एक किताब उनके लिए केवल पन्नों का ढेर नहीं थी, बल्कि वो खिड़की थी जो उन्हें उस समाज की ओर ले जाती, जहाँ स्त्रियां स्वतंत्र थीं, सशक्त थीं और समाज में बराबरी का दर्जा रखती थीं। ये किताबें उनके विचारों का विस्तार करतीं, उन्हें नए विचारों से जोड़तीं और उनके भीतर यह भरोसा भरतीं कि बदलाव मुमकिन है। और इसी वजह से उन्होंने पढ़ाई को केवल अपनी जिंदगी में नहीं, बल्कि समाज में बदलाव के एक सबसे प्रभावशाली औजार के रूप में देखा।

गंगा नदी से उनका रिश्ता बहुत विशेष था। गंगा का जल उनके लिए सिर्फ एक नदी नहीं था, बल्कि एक जीवंत अस्तित्व था, जिससे उनका आध्यात्मिक और भावनात्मक संबंध था। वे घंटों घाट पर बैठकर उस बहते पानी को निहारतीं और भीतर एक नई ऊर्जा महसूस करतीं। गंगा में तैरना उनके लिए शारीरिक व्यायाम से ज्यादा एक आत्मिक साधना था। बनारस और उसकी आध्यात्मिकता, परंपरा और संस्कृति उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन चुके थे। वे नारी शक्ति की एक ऐसी मिसाल बन चुकी थीं, जिसमें आध्यात्म, विद्या और शिल्प – तीनों का समावेश था।

सावित्री देवी डालमिया केवल विचारों तक सीमित नहीं रहीं, उन्होंने जमीन पर उतरकर काम किया। उन्होंने शिक्षा को महिलाओं के सशक्तिकरण का सबसे प्रभावी हथियार माना और खुद इसे अपनाया। उन्होंने महिलाओं को पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरित किया, उन्हें शिक्षित करने के लिए कार्यक्रम चलाए और उन्हें आत्मनिर्भर बनने के लिए अवसर दिए। वे जानती थीं कि शिक्षा ही वह कुंजी है जिससे हर दरवाज़ा खुलता है – आत्मसम्मान का, आत्मनिर्भरता का, और सबसे जरूरी – आत्मविश्वास का। उनकी सोच यह थी कि यदि एक महिला शिक्षित हो जाती है, तो केवल वह नहीं, पूरा परिवार शिक्षित होता है, और उस परिवार से समाज बदलता है।

उनकी इसी सोच को मूर्त रूप मिला “सावित्री देवी डालमिया विज्ञान भवन” के रूप में, जिसकी स्थापना काशी हिंदू विश्वविद्यालय में की गई। यह भवन केवल एक शैक्षणिक ढांचा नहीं, बल्कि एक विचारधारा का प्रतीक है। यहां हजारों छात्र-छात्राएं शिक्षा ग्रहण करते हैं, रिसर्च करते हैं और अपने-अपने क्षेत्रों में Innovation करते हैं। इस भवन ने न जाने कितनी जिंदगियों को दिशा दी है, और हर साल हजारों युवा इसकी छांव में ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करते हैं।

यह भवन विज्ञान के उन सभी क्षेत्रों का समावेश करता है, जिनसे समाज को आगे बढ़ाने की उम्मीद होती है। भौतिकी, रसायन, गणित, जीवविज्ञान, भूविज्ञान जैसे विषयों पर रिसर्च करने वाले छात्रों को यह भवन आधुनिक प्रयोगशालाएं, रिसोर्स और एक प्रेरणादायक वातावरण प्रदान करता है। यहां के सेमिनार हॉल, स्टडी रूम और रिसर्च लैब्स, साबो जी के उस सपने को पूरा कर रहे हैं, जिसमें उन्होंने भारत को ज्ञान का वैश्विक केंद्र बनाने का सपना देखा था।

इस भवन की वास्तुकला भी एक विशेष संदेश देती है। इसकी भव्यता केवल बाहर से नहीं, बल्कि इसकी सोच और उपयोगिता से झलकती है। यह भवन बताता है कि ज्ञान को सहेजने के लिए केवल ईंटें और सीमेंट नहीं चाहिए, बल्कि एक समर्पित दृष्टिकोण चाहिए, जिसमें समाज के उत्थान का सपना हो। सावित्री देवी ने केवल एक इमारत नहीं बनवाई, उन्होंने एक ऐसी जगह बनाई जहां हर दिन नए विचार जन्म लेते हैं, और हर रात कुछ नया सोचकर छात्र घर लौटते हैं।

यह विज्ञान भवन केवल छात्रों के लिए शिक्षा का केंद्र नहीं, बल्कि महिलाओं के लिए उम्मीद की किरण है। यह भवन दिखाता है कि एक महिला, जिसने जीवन की शुरुआत साधारण कपड़े सिलने से की थी, वो भी एक ऐसा स्थान बना सकती है, जो भविष्य की पीढ़ियों को आकार देगा। यह भवन उन सभी महिलाओं के लिए प्रेरणा है, जो कहीं न कहीं यह सोचती हैं कि वे कुछ नहीं कर सकतीं।

सावित्री देवी डालमिया का जीवन इस बात का उदाहरण है कि परिवर्तन लाना किसी बड़े ओहदे या पद से नहीं होता, बल्कि अपने छोटे-छोटे कदमों से होता है। उन्होंने कभी मंचों पर भाषण नहीं दिए, ना ही अखबारों में अपनी फोटो छपवाई। लेकिन उनके कर्म इतने प्रबल थे कि वे अपने आप इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गए।

आज जब हम सावित्री देवी डालमिया विज्ञान भवन की ओर देखते हैं, तो यह केवल एक संस्थान नहीं लगता। यह एक जीवंत प्रेरणा है – एक ऐसी विरासत जो यह बताती है कि महिलाओं का स्थान केवल चार दीवारों में नहीं, बल्कि समाज निर्माण की हर प्रक्रिया में है। सावित्री देवी ने जो सोचा, वह आज हजारों विद्यार्थियों के सपनों में झलकता है।

काशी हिंदू विश्वविद्यालय की इस ऐतिहासिक धरती पर स्थित यह विज्ञान भवन, आने वाले समय में भी अनेकों युवा वैज्ञानिकों, शोधकर्ताओं और शिक्षकों को प्रेरित करता रहेगा। यह भवन नारी शक्ति के उस रूप को दर्शाता है, जो शांत है, लेकिन भीतर से अडिग है। वह शक्ति जो दुनिया को बदलने की ताकत रखती है।

Conclusion

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